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________________ १३० हिन्दी के नाटककार मसजिद की एक ईंट तक भी न हिलाई । शिवाजी अपनी साधना के विषय में कहता है, किन्तु स्वराज्य यदि हिन्दुओं तक ही सीमित रह गया. तो मेरी साधना अधूरी रह जायगी। मैं बीजापुर और दिल्ली की बादशाहत की जड़ उखाड़ फेंकना चाहता हूँ, वह इसलिए नहीं कि वे मुस्लिम राज्य है, बल्कि इसलिए कि वे आततायी हैं, एकतंत्र है, लोकमत को कुचलकर चलने वाले है।" शिवाजी एक अन्य स्थान पर कहता है, “सर्व साधारण की स्वतंत्रता की साधना करने वाले के हृदय में धार्मिक असहिष्णुता क्यों ?" ___ हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए 'स्वप्न-भंग' में दारा की मृत्यु महान् बलिदान है। 'स्वप्न-भंग' में आदि से अंत तक शैतान और खुदा का युद्ध है-मानवता और दानवता का संघर्ष है और भारत के भविष्य के लिए यह अभिशाप कितना घातक है कि दारा का स्वप्न पूरा न हो सका । दारा का चरित्र एक दिन्य आलोक-जगमग मानव-प्रेम और उदारता का चित्र है। राज्य उसे नहीं चाहिए, ताज उसे नहीं चाहिए, वैभव उसे नहीं चाहिए। वह तो चाहता है केवल भारतीय राष्ट्र की एकता-बन्धुत्व की प्रतिष्ठा । पर स्वप्न तो स्वप्न ही रहता है । करोड़ों भारतीयों के आँसुओं की पावसझड़ी के बीच यह मनोहर स्वप्न भंग हो गया-गांधी का भी बलिदान दारा के बलिदान का सहपंथी बना : "अाज एक महान् स्वप्न भंग हो गया । क्या राष्ट्रीय एकता के लिए एक महात्मा का बलिदान व्यर्थ जायगा? क्या दारा का स्वप्न सदा स्वप्न हो बना रहेगा? क्या भारत की भावो पीढ़ियाँ इस महान् बलिदान को भूल जायंगी?" प्रकाश द्वारा किया गया यह प्रश्न आज समस्त राष्ट्र के सामने है। पात्र-चरित्र-चित्रण प्रेमी जी के नाटकों का निर्माण ऐसे युग में हुआ जब सामाजिक और राजनीतिक रूप में भारतीय जनता विनाशक रूढ़ियो और विदेशी शासन से संघर्ष कर रही थी। यह युग नीति और श्रादर्श की आस्था का था। संघर्ष के समय आदर्श और नीति का कठोर पालन करना आवश्यक-सा हो जाता है । साथ ही जिस युग के यह नाटक हैं, वह युग भी हिन्दू-मुस्लिम-संघर्ष का था। वह भारतीय इतिहास का सामन्ती युग था । आवश्यक और उपयोगी शौर्य के साथ ही शौर्य-प्रदर्शन भी उस युग की विशेषता है। यह युग न्यक्ति-प्रधान था । व्यक्ति-पूजा की भावना होना अनिवार्य हो जाता है । व्यक्ति-पूजा होगी, तो व्यक्ति में श्रादर्श की स्थापना हो ही जायगी। इन्हीं
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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