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गोविन्दवल्लभ पन्त
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'अन्तःपुर का छिद्र' में यह रहस्य-ग्रन्थि घटना के रूप में आई है। हस्ती-स्कन्ध वीणा में सर्प रखती है मागंधिनी, पर वह इसका दोष मढ़ती है पद्मावती के सिर । उदयन भी पद्मावती को ही दोषी समझता है। यह रहस्य दर्शकों और पात्रों के बीच नहीं, पात्रों के बीच है । उदयन के लिए है । अन्त में मालिन के द्वारा सूचना दिये जाने पर रहस्योद्घाटन हो जाता है। इसी प्रकार की रहस्प-ग्रंथियाँ नाटकीय कला की अनिवार्य तत्व हैं। यह तत्त्व पंतजी के नाटकों में पर्याप्त मात्रा में है।
पात्रों का चरित्र-विकास नाटक का सबसे आवश्यक तत्त्व है। यहाँ चरित्र-विकास की आलोचना न करके, चरित्र-चित्रण को शैली या उसकी कला पर ही विचार हो सकता है। चरित्र-प्रकाशन का ढंग भी लेखक का अपना होता है। चरित्र-चित्रण कई प्रकार से किया जा सकता है-अन्य पात्रों के द्वारा, क्रिया या कर्म के द्वारा, घटना के द्वारा और स्वगत के द्वारा । पंत जी ने स्वगत की ही शैली अपनाई है। इनके नाटकों के प्रायः सभी पात्र अपने दुःख और दुविधा, घृणा और प्रेम, राग और विरक्ति, विनाशकारी और उपकारी गुणों का प्रकाशन प्राय: स्वगत के द्वारा ही करते हैं । यह शैली चरित्र-चित्रण की श्रेष्ठ शैली नहीं कहलाती। कर्म या अन्य पात्रों द्वारा चरित्र-चित्रण श्रेष्ठ होता है, इस ढंग को पंतजी ने अपने नाटकों में बहुत कम अपनाया है। वरमाला' में अवीक्षित और वैशालिनी दोनों ही अपने मन की स्थिति प्रायः स्वगतों के द्वारा ही रखते हैं। 'राज-मुकुट' में शीतल रानी एक अंगार-भरा चरित्र है। वह भी स्वगत के द्वारा ही अपने को प्रकट करती है
"संग्रामसिंह का वंश मिटा दिया-किसने बनवीर ने । बनवीर किसका साधन है ? मेरा । मुझे यह कौन नचा रही है ? मेरे मनोराज्य में रहने वाली आकांक्षा ! आकाक्षा, तेरी तृप्ति न होगी क्या ?"
'अन्तःपुर का छिद्र' में पद्मावती की अमिताभ के प्रति भक्ति और मागंधिनी की ईर्ष्या स्वतः ही प्रकट है।
पंत जी की नाट्य-कला पर, जैसा कि कहा गया है, पारसी-रंगमंच का प्रभाव भी है। फिल्मी-प्रभाव भी लक्षित होता है। 'वरमाला' के तीसरे अंक के प्रथम दृश्य के तीनों उपदृश्य फिल्मी-कला के द्योतक हैं। स्वप्न रंगमंच पर नहीं दिखाया जा सकता, फिल्म में बड़ी सरलता से दिखाया जा सकता है।