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हिन्दी के नाटककार 'राजमुकुट' के प्रथम अंक का प्रथम दृश्य भी इसी प्रकार कार्य-व्यापार और नाटकीय कौतूहल से पूर्ण है । विक्रम की सभा में सहसा प्रजाजनों का प्रवेश रंग में भंग कर देता है। कर्मचन्द का प्रवेश, विक्रम द्वारा उस पर वार, क्षिप्रता से जयसिंह का विक्रम पर आक्रमण और तुरन्त बनवीर का अपनी तलवार पर उसका वार रोकना-यह सब नाटक के उपयुक्त वातावरण
और कार्य-व्यापार को उपस्थित करता है। दूसरे और तीसरे अंक का पाँचवाँ दृश्य भी बहुत सबल है । 'अङ्ग र की बेटी' में कार्य-व्यापार ‘राजमुकुट'-जैसा भले ही न हो, पर उसकी कथा या घटनाए शिथिल नहीं हैं। उनमें भी स्फूर्ति है और नाटककार ने उनमें काफी गतिशीलता भर दी है। बनवारी बाबा का नाचते-गाते प्रवेश, प्रतिमा का नृत्य-चंचल चाल और संगीतविह्वल वाणी से प्रकट होना, दूसरे अंक के दूसरे दृश्य के अन्त में माधव और मोहन का संघर्ष मोहनदास माधव की जेब से पिस्तौल निकालता है। माधव पर निशाना लगाता है। माधव उसके हाथ को घुमाता है । मोहनदास के सिर पर कुर्षी मारता है। पिस्तौल छूटता है। पुलिस आती है। कार्य-व्यापार में इससे बहुत अधिक गति आ जाती है । 'अन्तःपुर का छिद्र' में घटनाओं में अधिक कार्य-व्यापार नहीं, पर चरित्रों में अवश्य है। उसमें अधिक उछल-कूद को श्रावश्यकता भी नहीं। वह चरित्र-प्रधान नाटक होने से मानसिक कार्य-व्यापार उसमें काफी है।
पंतजी अपने नाटकों में रहस्य-ग्रन्थि भी रखने हैं। यह कथानक, पात्र तथा चरित्र सभी में होती है। इससे कथा में दर्शक आकर्षक बना रहता है, पात्रों में जिज्ञासा रहती है और चरित्रों के प्रति कौतूहल जागृत रहता है । यह कभी तो पात्रों के बीच रहता है और कभी पात्रों और सामाजिकों के बीच । इस रहस्य-सजन' का पन्तजी ने अपने सभी नाटकों उपयोग किया है। यह रहस्य 'वरमाला' के तीसरे अंक के तीसरे दृश्य में है। वैशालिनी और अवीक्षित परस्पर एक दूसरे को नहीं पहचानते । सामाजिक उन्हें पहचानते हैं । अन्त में दोनों एक-दूसरे को जान जाते हैं। राज-मुकुट' में उदयसिंह को भी सामाजिक तो पहचानते हैं-पर नाटक के अन्य पात्र नहीं पहचानते । यह रहस्य-ग्रन्थि 'अंगूर की बेटी' में सबसे अच्छे रूप में पाई है। विनोदचन्द्र को विनायक और मोहनदास नहीं पहचान पाते । पाठक और दर्शक भी भ्रम में पड़ सकते हैं, यदि उसका रूप (मेकप) सफलतापूर्वक भरा जाय । रहस्य खुलने पर निश्चय ही दर्शक श्रानन्द-चंचल हो तालियाँ बजायंगे।