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मध्यकाल का हिन्दी जैन साहित्य |
( १५ वी से १७वीं शताब्दि )
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क्रान्ति के पश्चात् शान्तिमय वातावरण का होना स्वाभाविक है । हिन्दी के उत्पत्तिकालके आदि में क्रान्ति की आँधी चल रही थी । मुसलमानों के आक्रमणों और विजयों एवं राजपूतों के पारस्परिक संघर्ष और उनके पतन से प्रत्येक दिशा में और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उथल-पुथल हो रही थी। किन्तु यह परिस्थिति अधिक समय तक न रही । विजेता मुसलमान भारत में बस गये थे । वे अपने पड़ोसी हिन्दुओं से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उत्सुक थे । पड़ोसी से वैर बिसाकर वे सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे । लड़ते-लड़ते वे थक चले थे और चाहते थे, 'आराम की सांस लें' । उधर राजपूत लोग भी क्षीण-शक्ति हो गये थे । जब भुजविक्रम की ही हीनता थी, तब भला चारण कविओं के वीर रस से आप्लावित गीत किस पौरुष को उभारते ? परिणामत: समय ने फिर पलटा खाया। भारत में फिर एक बार धार्मिक लहर आयी । साहित्य संसार उससे अछूता न रहा । हिन्दीसाहित्य जगत् में यह काल धार्मिक काल कहलाया । पहले ही निर्गुण पन्थ ने अपने ज्ञान का प्रसार किया । इस पन्थ का उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्थापित करना था । सन्त कवियों ने निर्गुणवाद में हिन्दू और मुसलमानों की एक दूसरे के निकट आने की संभावना देखी थी । वे लोग 'नाम' की उपासना करते और वैयक्तिक धर्मसाधना को आवश्यक समझते थे । यद्यपि उनके अलग-अलग सम्प्रदाय थे, परंतु वे एक दूसरे के विरोधी