________________
[ हिन्दी जैन साहित्य का
कवि नरसेनरचित 'सिद्धचक्र, श्रीपालकथा' भी संभवतः पन्द्रहवीं शताब्दि की रचना है। उसकी एक प्रति हमारे संग्रह में है, जो संवत् १५५८ की लिपि की हुई है। अतः नरसेनजी का समय १५वीं शताब्दि का अन्तिम पाद होना संभव है - साठ सत्तर वर्ष में उनकी रचनायें प्रचार में आ गई होंगी । उनकी भाषा प्रायः पुरानी हिन्दी से मिलती हुई है - वह उस समय की देसी भाषा ही है। उनकी रचनाशैली के उदाहरण देखिये
૨૪
'सिद्धचक्क विहि रिद्धिय, गुणह समिद्धिय, पणवेविणु सिद्धमुनीसर हो । पुणु भरकमिणिम्मल, भवियह मंगल, सिद्धि महापुर सामीय हो ॥'
X
X
X
x
जिणवयणउ विणिग्गय सारी, पणविव सरसइ देवि भडारी । सुकइ करतु कब्वु रसवंतउ, जसु पसाइ बुहयणु रंजतउ ।
इस कथाप्रन्थ में श्रीपाल और मैनासुन्दरी का चरित्र वर्णित है । मैनासुन्दरी दिगम्बर जैन मुनि के पास पढ़ने गई है और गुरु महाराज ने उसे जो शिक्षा दी है, उसे पाठक अवलोकन करें
' पाहणह निमित्त गुणसंजुन्त, पढम सम्मपिय दियंबरि हो । जिणजिणय पुरंदरि, मयणासुन्दरि, सामाएसिय मुणिवर हो । सा जेठ कम्न पुन्नु पढय केम्म, बुहयण विणउ तरु देइ जेम । पुणु लहुय कुयरिणि पाणकिहं, पण वारु विज्जाइउह पवरुजिहं । वायरणु - छंदु - गाडउ - मुणिउ, णिघंटु-तक्कु - लक्खण सुणिउ । पुणु अमरहु सुलंकार सोहु, आययु जोइसु बूझिंउग्गखोहु । जाणीय बहतर कला पहाण, चउरासी खंडह तह विणाण । पुणु गाह- दोह-छप्पय सरुव, जाणीय चउरासी बंध तुय ।