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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का [३] हिन्दी की उत्पत्ति का मूल जैन साहित्य और उसका कालविभाग साहित्य का सृजन लोककल्याण के लिये होता है; लोकरंजन का भाव लोककल्याण की भावना में छिपा रहता है और लोक तक पहुँचने के लिये बोलचाल की भाषा को साहित्य का माध्यम बनाया जाता है। चमत्कृत रसपूर्ण वाक्यों का संवर्द्धन और संग्रह साहित्य में होता चलता है, वही तो साहित्य कहा जाता है। हाँ, यह आवश्यक है कि साहित्य में चमत्कार लाने के लिये उसमें समयानुसार नई शैली, नये भाव और नये नियमों का समावेश किया जाता रहे। इस समावेश का परिणाम यह अवश्य होता है कि बोलचाल की भाषा में और उसके आधार से बनी हुई साहित्यिक भाषा में अन्तर पड़ जावे, किन्तु यह अन्तर मौलिक नहीं होता, क्योंकि साहित्यिक भाषा अपने मूल स्रोतभूत प्रचलित लोकभाषा से बिलकुल दूर नहीं जा पाती। तो भी, इन दोनों भाषाओं में परस्पर सामंजस्य बनाये रखने के लिये समयानुसार सुधार और परिवर्तन किये जाते हैं। इन सुधारों के फलस्वरूप जब कभी कालान्तर में प्राचीन भाषा में इतना अधिक परिवर्तन हो जाता है कि विद्वान मानते हैं कि एक नई भाषा का जन्म हो गया है। आज भारत में जो अनेक भाषायें प्रचलित हैं उनका उद्गम इस प्राकृत नियम के अनुसार ही हुआ है। भगवान महावीर के समय में इस देश में प्राकृत भाषा का प्राबल्य था। वह देश-भेद के कारण यद्यपि अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी आदि भेदरूप मानी जाती है, परन्तु मूलतः वे एक
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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