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________________ [ हिन्दी जैन साहित्य का हरिवंश - महार्णवको कैसे तरूँ ?' उनकी महत्ता उनके सज्जन सुलभ हृदय निर्गत लघुता वर्णन में भी देखिये : निहित है । पाठक उसे १० "वह स्वयंभु का करम्मि, हरिवंसमहण्णउ के तरग्मि । गुरु-वयण- तरंडउ लघु णवि--जम्महो वि ण ओइड को वि कवि ॥" -- 'रामायण' को जब वह रचने बैठते हैं, तब भी उनका सौजन्य आगे आ नाचने लगता है। वह कहते हैं - " वायरणु कयाविण जाणियउ - णउ वित्ति-सुत्तु वक्खाणियउ ।” किन्तु उनके काव्य कितने सुन्दर, मधुर, और महान हैं, यह पढ़ने से सम्बन्ध रखता है । हमें तो यहाँ पर केवल हिन्दी जैन साहित्य की विशेषता का दिग्दर्शन कराना इष्ट है । हिन्दी जैन साहित्य के लिये यह विषय गौरव का है कि उसमें ही हिन्दी का प्रारंभिक महान् काव्य सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त हिन्दी जैन साहित्य में कुछ ऐसी सर्वोपयोगी साहित्यक रचनाएँ हैं, जो संसार के साहित्य में बेजोड़ हैं और उनके कारण लोक साहित्य में हिन्दी का मस्तक ऊँचा है । उदाहरणार्थ हम 'अर्द्धकथानक' और 'उपमितिभव-प्रपंच कथा' का उल्लेख पहले कर चुके हैं'। उनके अतिरिक्त अरब और १. “हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस ग्रन्थ का ( अर्द्ध कथा • ) एक विशेष स्थान तो होगा ही, साथ ही इसमें वह संजीवनी शक्ति विद्यमान है, जो इसे अभी कई सौ वर्ष और जीवित रखने में सर्वथा समर्थ होगी । सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकता का ऐसा ज़बरदस्त पुट इसमें विद्यमान है । भाषा पुस्तक की इतनी सरल है और साथ ही यह इतनी संक्षिप्त भी है, कि साहित्य की चिरस्थायी सम्पत्ति में इसकी गणना
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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