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________________ परिवर्धन [ यथास्थान इन टिप्पणों का विवरण मूल पुस्तक में जुटाकर पढ़ना उचित है।] कवि धनपाल नामक (पृ०१०५)विद्वान् 'भविष्यदत्तचरित्र' के कर्ता से भिन्न भी हुये हैं। उनका पता प. परमानन्द जी को आमेरका 'भ० महेन्द्रकीर्ति के भंडार' को देखते हुये चला, जिसका उल्लेख उन्होंने 'अनेकान्त' (वर्ष ७ किरण ७-८ पृष्ठ ८३-८४ ) में किया है । इन कवि धनपाल का रचा हुआ 'बाहुबलचरित' नामक ग्रन्थ उक्त भंडार में है। वह अपभ्रंश प्राकृत भाषा की रचना है। उसके पत्रों की संख्या २७० है। उसमें भ० आदिनाथ के सुपुत्र श्री बाहुबली स्वामी का चित्रण किया गया है। उसकी भाषा के विषय में पं० परमानन्द जी लिखते हैं कि उसकी भाषा दुरूह मालूम नहीं होती। वह हिन्दी भाषा के बहुत कुछ विकसित रूप को लिये हुये है। उसमें देशी भाषा के शब्दों की बहुलता दृष्टिगोचर होती है, जिससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि विक्रम की १५ वीं शताब्दि में हिन्दी भाषा बहुत कुछ विकाश पा गयी थी। रचना सरस और गंभीर है और वह पढ़ने में रुचिकर प्रतीत होती है । कवि ने अपना परिचय देते हुये लिखा है "गुज्जरदेस मजिस पवट्टणु, वसइ बिउल परहणपुर पट्टणु । वीसल एउ राउ पय पालउ, कुवलयमंडणु सयलुबमालउ । तहिं पुरवार वंस जायामल, अगणिय पुस्यपुरिस जिम्मलकुछ । पुण हुउ रायसेहि मिणभत्तउ, भोवह गामें दयगुण जुत्तउ । सुहापट तहो गंदणु जायउ, गुरुसजणहिहं भुभणिविकवायट ।"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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