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[ हिन्दी जैन साहित्य का
क्योंकि हिन्दी जैन साहित्य में अनेक ऐसे ग्रन्थ रत्न छिपे पड़े हैं जिनका प्रकाश में आना गौरव की वस्तु हो सकता है । उदाहरणार्थ कविवर बनारसीदासजी का 'अर्द्धकथानक आत्मचरित' ही लीजिये | रहस्यपूर्ण रूपक काव्य में 'उपमितभवप्रपंचकथा' का हिन्दी रूपान्तर सारे साहित्य जगत में अनूठा है । उसकी समकोटि में अँग्रेजी साहित्य का 'पिलप्रिक्स प्रोग्रेस' ही उपस्थित किया जा सकता है ।
यह देखकर हमें आश्चर्य होता है कि हमारे हिन्दी इतिहास लेखक विविध हिन्दू सम्प्रदायों के कवियों और उनके साहित्य का उल्लेख करते हुये उनमें सम्प्रदायवाद की गन्ध नहीं पाते किन्तु जैन साहित्य में उन्हें साम्प्रदायिकता नजर आती है । वे यह भूल जाते हैं कि हिन्दी साहित्य की परिपूर्णता जैनियों के हिन्दी साहित्य का समावेश किये बिना नहीं हो सकती ।
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इस प्रकार दोनों ओर से हिन्दी जैन साहित्य उपेक्षा की वस्तु रहा है। जब घरवालों ने ही उसे भुला दिया—उसकी सुध न ली, तो बाहर वालों को क्या पड़ी थी जो पड़ोसियों का घर टटोलते । निस्सन्देह जैनियों की उपेक्षा उनके हिन्दी साहित्य के लिये घातक सिद्ध हुई है। उसे कैसे कोई भुलाये ? जैनियों को चाहिये कि वे अपने शास्त्र भण्डारों की खोज करें और अपने अनूठे प्रन्थ रत्नों को प्रकाश में लावें। अपनी उदासीनता का अन्त करें और हिन्दी विद्वत्समाज के हाथों तक अपने ग्रन्थ रत्न पहुँचायें, जिससे उनका उपेक्षा भाव भङ्ग होवे और पण्डित प्रवर बनारसीदासजी चतुर्वेदी के समान अन्य हिन्दी महारथी भी हिन्दी जैन साहित्य का महत्त्व आके और उसे प्रकाश में लावें ।