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संक्षिप्त इतिहास]
सम्प्रदायवाद का भूत चढकर वह कौतुक कराता है कि जिसे देखकर दांतो तले अंगुली दबानी पड़ती है। हिन्दी की उन पुस्तकों को उठाकर जरा देखिये जिनमें भारत का इतिहास अथवा देश
और उसके निवासियों का परिचय संकलित है, उनमें जैनियों के विषय में पहले तो शायद कुछ होता नहीं और जब होता है तो बेसिर पैर का ऊटपटांग वर्णन ! उद्धरण देकर उस दयनीय स्थिति का परिचय कराने का यह स्थल नहीं है । खेद है कि सम्प्रदायवाद का विष लेखकों को उनके उत्तरदायित्व का बोध ही नहीं होने देता। इस प्रसंग में हमें यूरोपवासी पूर्वीय भाषाविज्ञ विद्वानों का स्मरण हो आता है, जरा प्रो० ग्लास्नप्प की 'डैर जैनिज्मस' अथवा प्रो० गिरिनॉ की 'लों जैन' पुस्तक लेकर देखिये, उन्हों ने अपने प्रामाणिक वर्णन देने में कुछ उठा नहीं रक्खा, किन्तु भारत की राष्ट्रभाषा में एक भी ऐसी पुस्तक नहीं जिसमें यहां का सर्वांगीण प्रामाणिक विवरण हो!
हिन्दी साहित्य के एक नहीं, अनेक इतिहास प्रकाशित हुये हैं, किन्तु किसी में भी हिन्दी जैन साहित्य का सामान्य परिचय भी नहीं मिलता, उनको पढ़कर यह कोई अनुमान नहीं कर सकता कि जैनियों का भी हिन्दी में कोई अनूठा साहित्य है। हिन्दी के उपलब्ध इतिहासों में कहीं तो हिन्दी की उत्पत्ति प्रसंग में जैन अपभ्रंश साहित्य का उल्लेख करके चुप्पी साध ली जाती है, कहीं दो चार जैन कवियों का नामोल्लेख करने की कृपा की जाती है और कहीं पर साफ कह दिया जाता है कि जैनियों का साहित्य जैनधर्म सम्बन्धी और साम्प्रदायिक है, किन्तु यह अन्याय केवल जैनियों के प्रति ही नहीं, स्वयं हिन्दी साहित्य के लिये भी हानिकर है।