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- २९६ वें पत्र पर लिखा है कि द्रव्य निक्षेपा जो तीर्थकर होने वाला है, जिसका निकाचितबंध हो चुका है उसको पूज के नम: स्कार करके अनेक जीव मुक्ति में गये हैं। तर्क० यह लेख भी झूठ है क्योंकि इस रीति से एक पुरुष को तो मोक्ष प्राप्त होगया सूत्र द्वारा दिखाते हो किम्बा जबान से ही गरडाट करते हो ? कस्मात् कारणात् कि निका चित बंध तीर्थकर गोत का ३तीन भव पहले पड़ता है । भला कहीं भर्थचक्री की भूला वन देते हो फिर और भाव निक्षेपे में सीमन्धर स्वामी माने हैं तर्क० सो हम भी तो भाव निक्षेपे में सीमन्धर स्वामी अर्थात् वर्त मान तीर्थंकर अतियश संयुक्त विचरते हों उन्हीं को भाव तीर्थकर मानते हैं और तुम |