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दुःख देई ॥२॥ बिन औरण नारी तजैमंत्र वेद की व्याही । ब्रह्मचारी होकर तजै तो कुछ दूषण नाहीं ॥३॥ कंद मूल फल खाय पुरूष पर सु ललचावै । गद दिनों के बीच नारि के संग चितलावै ॥ ४ ॥ निज पुरूष को निन्दना पर सखियन पै जाय । चण्डाल सोई नर जानिये चुगली करके खाय ॥५॥ दया धर्म को तजै धान कन्या का खावै । खङ्ग युद्ध से डरै भैंस गाई हड़ ल्यावै ॥६॥ सांझ प्रभात मध्यान में रमै त्रिया के संग। चण्डाल सोई नर जानिये जो करै नेम को भंग ॥ ७॥ भाजी दे संयोग में सब का बुरा मनावै । जो कन्या को हने सो चण्डाल कहावै ॥ ८॥ महिषी सुत विनाश ही गौ सुत विधिया होय । चोट लगावै स्वान के