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व्यापार के लाभ की तरह सदैव ही चाह रहती है और ७/८ पग पहुंचाने की भक्ति समाचरे तथा औरों के घर बता देवे तथा दलाली करा देवे सो इस रीति से गृहस्थी भव सागर तरने के मार्ग में प्रवर्ते । और १२ जो साधु स्वाधीन संयम से स्थिल प्रवर्तता होवे तो उसे खूब नर्म गर्म शिक्षा देवे कि हे स्वामी नाथ ! हे आर्य ! तथा हे साध्वी! हे आर्थिके तुम तो बुद्धिमान हो और तुम नें संसार के विहार को अनित्य जान के योग धारा है तो अब अपनी सुमति गुप्ति आदि क्रिया से मत चूको जो तुम्हारे कम की मोक्ष होवे नहीं तो न इधर के रहोगे न उधर के रहोगे, जैसे कोई पुरुष अपने घर से हाट हवेली बेच के एक मोटे नगर को