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परन्तु कामान्य प्राणी काम के पीड़े हुए मिथुन विषय सुख अंगीकार करते हैं न तो महा अपावान और दुर्गछनीक निर्लज्ज विषय सुख हैं जैसे विचार कि कामाध्यवसाय को मोड़े तथा जैसे विचारे कि जो अपनी घर की थाली में खाके मन की तृप्ति न हुई तो फिर पराई जूठी सैणक चाटे से क्या तृप्ति प्राप्त होगी ? तथा जैसे विचारे कि शास्त्र भगवती जी में लिखा है कि स्त्री की योनि के मल में संख्यात तथा असंख्यात गर्भेज तथा छमछम जीव उत्पन्न होते हैं और मैथुन के काल में विध्वंस भाव को प्राप्त होजाते हैं सो जैसा असंयम जान के विषय भाव से निवृत्त होजावें तथा जैसे विचारे कि धन्य हैं वह सन्त और सती जन
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