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सार है जो अभय दान सुपात्र में दान का देना । और बचन बोलने का यही सार है जो हितकारक प्रीति का पैदा करना, यथा। वचन२ सब कोई कहे, बचन के हाथ न पांव, एक बचन औपधि करे, एक जो घाले घाव, १ ॥ श्लोक ॥ येषां न विद्या न तपो न दानं नंचापि शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्यु लोके भुवि भार भूता, मानुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ १॥ और फिर देखिये कि हर एक मनुष्य अपने २ जैसे वैसे नियम में भी उद्यम कर लेते हैं यानि जोहड़ तालाव आदि में गोते गाते लगा लेते हैं वा वेल पाति फल फूल तोड़ के मूर्ति पै चढ़ा देते हैं। वा घड़ियाल घण्टा नगारा पै चोट लगादेते हैं वा उधर रोज़ा उधर निमाज़ उधर जीवघात
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