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कि जब सकल कार्य सिद्ध ही हो चुके तो फिर जानबूझ कर स्वाधीन भला उपाधि में क्यों पड़ेगा, सुख में से छुटाके दुःख में तो कर्म गेरते हैं सोई सिद्धों के तो कर्म रहे नहीं जेसे शास्त्रों में कहा है कि "दग्धवीजं यथा युक्तं, प्रादुर्भवतिनां कुरस् । कर्म वीजं तथा दग्धं, नारोहति भवांकुरम् ॥१॥ अस्यार्थः सु गमः॥३॥ फिर कितनेक मतावलम्बी पुरुप ऐसे कहते हैं. कि चिदानन्द सत्यात्म लोकालोक एक ही व्यापक है। उत्तरपनी । सो उन मतावलम्बियों का यह कथन शशशृङ्गवत् है क्योंकि जब एकही चिदानन्द तो फिर उपदेा किसका है और उपदेश देने वाला कौन है और सत्यादिक सुकृत करना किसके वास्ते हे और मिथ्यात आदिक दुष्कृत किम के