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चौथा अध्याय ]
बहिर्जगत् ।
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शक्तिकी न्यूनता या अधिकताका ज्ञापक है और ज्ञेयवस्तुके अभावमें उसके विषयके ज्ञानका भी अभाव होता है।
ज्ञेय वस्तुका स्वरूप और उससे उत्पन्न ज्ञानका पार्थक्य, रसना घ्राण और श्रवणेन्द्रियसे प्राप्त ज्ञानके सम्बन्धमें ही विशेष रूपसे प्रतीत होता है। दर्शनेन्द्रिय और स्पर्शन्द्रियसे प्राप्त आकृतिके ज्ञान और आकृतिके स्वरूपका पार्थक्य उतना स्पष्ट अनुमित नहीं होता। __ बहिर्जगत्के ज्ञेयवस्तुविषयक ज्ञानलाभके साथ साथ बुद्धि जो है वह उन उन वस्तुओंकी जातिका विभाग करती है। पहले ही कहा जा चुका है कि वह जाति केवल नाम नहीं है, वह उस जातिके वस्तुसमूहकी साधारण गुणसमष्टि है। जाति, बहिर्जगत्में, उस जातिकी वस्तुसे अलग रूपमें नहीं है। जातीय गुणोंकी समष्टि जातिकी प्रत्येक वस्तु में है । जाति केवल अन्तर्जगत्का पदार्थ है । जातिविषयक ज्ञान और जातिका स्वरूप, इन दोनोंमें पार्थक्यका होना जान नहीं पड़ता।
(२) बहिर्जगत्के सब विषयोंका श्रेणीविभाग। बहिर्जगत्के सब विषयोंको श्रेणीबद्ध किया जाय, तो कई प्रणालियोंसे वह किया जा सकता है।
बहिर्जगत्-विषयक ज्ञान इन्द्रियद्वारा प्राप्त है; अतएव बहिर्जगत्के सब विषयोंको हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द इन पाँच प्रकारके विषयोंके अनुसार श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। ___ अथवा बहिर्जगत्की सब वस्तुएँ चेतन, उद्भिद् , या अचेतन हैं, इसी लिए इन तीन श्रेणियों में उनका विभाग किया जा सकता है।
अथवा बहिर्जगत्की सब वस्तुओंके परस्परके कार्य अनेक प्रकारके हैं, जैसे भौतिक, रासायनिक और जैविक, इसी लिए भौतिक, रासायनिक और जैविक, इन श्रेणियोंमें वे बाँटे जा सकते हैं।
जड़पदार्थकी जिन सब क्रियाओंके द्वारा उनकी भीतरी प्रकृतिका परिवतन न होकर केवल बाहरी आकृति आदिका परिवर्तन होता है उन्हें ऊपर भौतिक (1) क्रिया कहा गया है । इसके दृष्टान्त-छोटी वस्तुको खींचकर (१) अँगरेजी " Physical " शब्दका प्रतिशब्द ।