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७० ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग अगर यही बात ठीक है तो फिर जड़से चैतन्यकी उत्पत्ति स्वीकार करने में आपत्ति क्या है ?-यह बात अगर कोई महाशय कहें तो उसका उत्तर यह है कि जिस जड़से चैतन्यका विकास हो सकता कहा जाता है वह चैतन्यसंभूत जड़ है, जडवादीका जड़ नहीं है, अर्थात् जिस जड़में पहले चैतन्यका कोई संसर्ग नहीं था वह जड़ नहीं। जड़ाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद इन दोनों मतोंमें भेद यह है कि पहले मतमें जड़ ही सृष्टिका मूलकारण है
और चैतन्य जड़से उत्पन्न है, और दूसरे मतमें चैतन्य ही सृष्टिका मूल कारण है और जड़ चैतन्यसे उत्पन्न है।
अब इसकी कुछ आलोचना आवश्यक है कि ज्ञेयवस्तुके स्वरूप और उसके ज्ञानका परस्पर क्या सम्बन्ध है।
ज्ञेय वस्तुका स्वरूप और उसके विषयका ज्ञान दोनों एक ही प्रकारके पदार्थ हैं, यह बात अन्तर्जगत्की वस्तुके सम्बन्धमें सत्य हो सकती है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह बहिर्जगत्की वस्तुके सम्बन्धमें भी समानभावसे सत्य है । मैं अपने स्मृतिपटलमें किसी अनुपस्थित मित्रकी जो मूर्ति देखता हूँ वह अन्तर्जगत्की वस्तु और उसके विषयका ज्ञान एक ही पदार्थ है। उस मित्रके सामने उपस्थित रहनेपर उसकी जो मूर्ति में प्रत्यक्ष करता हूँ वह और उसके विषयका ज्ञान एक ही तरहका पदार्थ हो सकता है। किन्तु उस मित्रके मधुर स्वरको सुननेका ज्ञान और उस स्वरका स्वरूप, अथवा उस मित्रके दिये हुए किसी खूब मीठे फलके स्वादका ज्ञान और उस स्वादको प्रकट करनेवाले रसका स्वरूप, दोनों एक ही प्रकारके पदार्थ हैं, ऐसा अनुमान नहीं किया जा सकता। हाँ, पक्षान्तरमें, यह बात भी नहीं कही जा सकती कि बहिर्जगत्-विषयक ज्ञान और बाह्य वस्तुके स्वरूपमें कोई घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं है, अथवा बहिर्जगत् मिथ्या है और उसके विषयका ज्ञान मायामय और प्रान्तिमूलक है। ऐसा कहा जाय तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सृष्टिकर्ताका कार्य एक विषम प्रतारणा है।
बाह्यवस्तुका स्वरूप और इन्द्रियद्वारा प्राप्त उसके विषयका ज्ञान, दोनों भिन्न प्रकारके पदार्थ होने पर भी परस्पर घनिष्ठरूपसे सम्बद्ध रहते हैं । जैसे ज्ञानकी स्पष्टताका तारतम्य ज्ञेय वस्तुके गुण या ज्ञान उत्पन्न करनेवाली