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चौथा अध्याय ]
बहिर्जगत् ।
कथन संपूर्ण रूपसे ठीक नहीं है। विख्यात दार्शनिक पण्डित 'कान्ट' के मतमें, बहिर्जगत्में देश-पदार्थ है ही नहीं, वह केवल ज्ञाताके अन्तर्जगत्से उत्पन्न है। यह बात अगर सच हो तो इससे उक्त आपत्तिका खण्डन सहजमें ही हो गया। हम कान्टके उक्त मतको ठीक नहीं कहते, किन्तु हमारे मतमें 'स्थानमें स्थिति ' जड़ और चैतन्य दोनोंका ही लक्षण है। __ यह तो हुआ दार्शनिकोंका तर्क । अब यह देखना चाहिए कि चैतन्य ही बहिर्जगत्का उपादान कारण है, अर्थात् चैतन्याद्वैतवाद ही ग्रहण करने योग्य मत है, इस सम्बन्धमें कोई वैज्ञानिक प्रमाण या युक्ति है कि नहीं। वैज्ञानिकोंमेंसे अनेक लोग इन सब बातोंको हमारे ज्ञानकी सीमाके बाहर कहकर उड़ा देते हैं। उनमेंसे जिन्होंने इस विषयका अनुशीलन किया है वे भी यह नहीं कह सकते कि हम किसी सिद्धान्त पर पहुँचे हैं या नहीं। हाँ, उनकी बातचीतके ढंगसे यहाँतक आभास पाया जाता है कि जिसे हम जड़ कहते हैं वह वास्तवमें जड़ नहीं है, वह निरन्तर गतिशील ईथर (ether) में स्थित शक्तिकेन्द्रपुञ्ज है (१)। एक वैज्ञानिक (२) इतनी दूर गये हैं कि उनके मतमें जड़ जो है वह शक्तिसमष्टि है, परमाणुओंके विश्लेषणसे शक्तिका उद्भव हो सकता है, और नई आविष्कृत रेडियम धातु ( Radium ) की क्रिया इसी श्रेणीका कार्य है।
चैतन्यसे जड़की उत्पत्तिका सिद्धान्त मानने पर और एक प्रश्न उठता है, उसके सम्बन्धमें भी कुछ कहना आवश्यक है। वह प्रश्न यह है कि अगर चैतन्यसे जड़की उत्पत्ति हुई तो फिर चैतन्यका आत्मज्ञान जड़से कहाँ चला गया ? इस प्रश्नके उत्तरमें कहा जा सकता है कि जड़पदार्थ शक्तिसमष्टि होने पर भी जैसे वह शक्ति उसमें प्रच्छन्न भावसे रहती है, केवल विशेष विशेष अवस्थामें ही वह प्रकट होती है, वैसे ही आत्मज्ञान भी उसमें प्रच्छन्न भावसे है, और अवस्थाविशेषमें उसका आभास पाया जा सकता है। डाक्टर जगदीशचन्द्र वसु (३) की गवेषणा भी कुछ कुछ इसी मतको पुष्ट करती है।
(१) Karl Pearson's Grammar of Science, 2nd ed. Ch. VII देखो।
(२) Gustave Le Bon's Evolution of Matter देखो। (३) Response in the Living and Non-Living देखो।