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ज्ञान और कर्म । [प्रथम भाग चैतन्यका विचित्र साक्षात्-सम्बन्ध भी घटित होता है, अतएव वे बिल्कुल ही विभिन्न प्रकारके पदार्थ नहीं हो सकते ।
अद्वैतवादमें भी जड़ाद्वैतवाद युक्तिसंगत नहीं हो सकता। कारण जड़ पदार्थकी संयोग-वियोग आदि प्रक्रियाओंके द्वारा चैतन्यकी अर्थात् आत्मज्ञानकी उत्पत्ति अचिन्तनीय है। जड़चैतन्याद्वैतवाद भी युक्तिसिद्ध नहीं जान पड़ता। क्योंकि उसमें अनावश्यक कल्पनागौरव दोष मौजूद है । यदि जड़ या चैतन्यमेंसे एकके अस्तित्वका अनुमान यथेष्ट है, तो फिर जड़ और चैतन्य दोनोंके गुणोंसे युक्त एक पदार्थका अनुमान अनावश्यक है। देखा गया है कि अकेले जड़से जगत्की सृष्टि होना असंभव है। कारण जड़से चैतन्यकी उत्पत्ति भचिन्तनीय है । अब देखना चाहिए, चैतन्यसे जड़की सृष्टि हो सकती है या नहीं। अगर हो सकती है, तो स्वीकार करना होगा कि चैतन्याद्वैतवाद ही सबकी अपेक्षा ठीक और ग्रहण करने योग्य मत है।
यद्यपि पहले चैतन्यसे जड़की उत्पत्ति भी जड़से चैतन्यकी उत्पत्तिकी तरह अचिन्तनीयं जान पड़ती है, लेकिन कुछ सोच कर देखनेसे मालूम होता है कि यह बात पहली बातकी तरह उतनी असंगत या असंभव नहीं है। कारण, जड़के अस्तित्वका प्रमाण ही ज्ञाताका ज्ञान, अर्थात् चैतन्यकी एक अवस्था है। हमारे इस कथनका यह मतलब नहीं है कि ज्ञाताके ज्ञानके बाहर जड़का अस्तित्व नहीं है । हम केवल यही कह रहे हैं कि जड़के और चैतन्यके मूलमें इतना सा ऐक्य है कि उनके बीच ज्ञेय और ज्ञाताका सम्बन्ध संभवपर है। यह बात कहनेसे अवश्य प्रश्न होगा कि अगर यही है तो फिर हम जड़से चैतन्यकी उत्पत्तिको असंभव क्यों मानते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर पहले ही दिया जा चुका है। हम जिसे जड़ कहते हैं उसमें चैतन्यका प्रधान गुण, अर्थात् आत्मज्ञान, नहीं है। इस उत्तरका प्रत्युत्तर हो सकता है कि अगर चैतन्यका प्रधान गुण आत्मज्ञान जड़में न देख पड़नेके कारण जड़से चैतन्यकी उत्पत्ति असंभव कहते हो, तो उधर जड़का प्रधान गुण, देश या स्थानमें व्यापकता, चैतन्यमें न देख पड़ने पर भी चैतन्यसे जड़की उत्पत्ति कैसे संभव कही जा सकती है ? इस आपत्तिका खंडन करनेके लिए यह कहा जा सकता है कि कुछ सोच कर देखनेसे समझमें आ जाता है कि " देश या स्थानमें व्यापकताका गुण जड़में देख पड़ता है, चैतन्यमें नहीं देख पड़ता," यह