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चौथा अध्याय ]
बहिर्जगत् ।
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पहले तो ज्ञेय और ज्ञानका मूल प्रमाण ज्ञाताकी उक्ति है और ज्ञाता अर्थात् आत्मासे पूछने पर यह उत्तर पाया जाता है कि बहिर्जगत् और उसके विषयका ज्ञान प्रकृत है। यद्यपि अनेक स्थलों पर (जैसे मैं चंद्र देखता हूँ-इत्यादि स्थलोंपर ) आत्माका उत्तर परीक्षाके द्वारा संशोधनसापेक्षसा जान पड़ता है तोभी संशोधनके बाद वह उत्तर जिस भावको धारण करता है उससे बहिर्जगत् और उसके विषयका ज्ञान सत्य है-आत्माका अवभासमात्र या मिथ्या नहीं है -यही प्रतिपन्न होता है। कारण, उस संशोधनका फल यह है कि बहिर्जगत्की जो वस्तु हम समझते हैं कि प्रत्यक्ष करते हैं वह उस वस्तु के द्वारा उत्पन्न हमारी इन्द्रियकी अर्थात् देहकी ही दूसरी अवस्था है। किन्तु पहले ही ('ज्ञाता' शीर्षक अध्यायमें) दिखाया जा चुका है कि आत्मा देहसे भिन्न है अतएव देह जब आत्मासे भिन्न है, अर्थात् बहिर्जगत्का अंश है, तब देहका अवस्थान्तर ज्ञान बहिर्जगत्-विषयक ज्ञान है, और देहका अस्तित्व बहिर्जगत्का अस्तित्व है-यह अवश्य ही स्वीकार करना होगा। परन्तु देहका ऐसा अवस्थान्तर आपहीसे घटित नहीं होता, वह देह और आत्माको छोड़ कर अन्य पदार्थके द्वारा संघटित होता है, यह बात आत्मा जानता है। अतएव देहसे भिन्न बहिर्जगत् है, यह बात भी प्रतीयमान होती है। देहबन्धनसे मुक्त, परमात्मासे युक्त, पूर्णताको प्राप्त आत्माके लिए आत्मा और अनात्माके
भेदका ज्ञान नहीं रह सकता, किंतु देहयुक्त अपूर्ण आत्माके लिए बहिर्जगत् . और उसके विषयका ज्ञान यथार्थ कह कर मानना ही होगा। __ दूसरे हम बहिर्जगत्की वस्तुके संबंधमें इंद्रिय द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह उस वस्तुका स्वरूप-ज्ञान नहीं सही, उसे उत्पन्न करनेवाला उस वस्तुका स्वरूप ही तो है; अतएव वह रस्सीमें सांप देखनेकी तरह मिथ्या-ज्ञान नहीं है। उस ज्ञान और ज्ञेय पदार्थके स्वरूपके साथ सादृश्य और घनिष्ठ सम्बन्ध है।
तीसरे, बहिर्जगत्-विषयक जाति और साधारण नाम यद्यपि अन्तर्जगत्में ही है और वह ज्ञाताकी सृष्टि है, तथापि उसके द्वारा बहिर्जगत्का असत्य होना नहीं प्रमाणित होता, बल्कि उसकी सत्यता ही प्रतिपन्न होती है। कारण जिन सब वस्तुओंके सम्बन्धमें जाति या साधारण नामकी सृष्टि हुई है उनका अस्तित्व स्वीकार करनेसे ही बहिर्जगत्का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है।
ज्ञान०-५