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ज्ञान और कर्म ।
[ प्रथम भाग
चौथे, आर्य जातिके बुद्धिमान् विद्वानोंका ' मायावाद, ' जान पड़ता है, atest अनित्य विषय-वासनासे निवृत्त और नित्य पदार्थ ब्रह्मकी चिन्तामें अनुरक्त करनेके लिए ही कहा गया है। मायावादकी सृष्टि होनेका और भी एक कारण हो सकता है। वह यह कि अद्वैतवादीके मतमें एक ब्रह्म ही जगत्का निमित्त कारण और उपादान कारण है । ब्रह्मसे ही जड़ और चेतन सब पदार्थोंकी उत्पत्ति हुई है । ब्रह्म नित्य और अपरिवर्तनशील है, किन्तु यह दृश्यमान जगत् अनित्य और परिवर्तनशील है । इस कारण ब्रह्मसे यह जगत् उत्पन्न होना अनुमान - सिद्ध नहीं । अतएव यह दृश्यमान जगत् मिथ्या और मायामय या ऐन्द्रजालिक है । — प्रथमोक्त अर्थ में मायावाद केवल भाषाका अलंकार मात्र है । उस अर्थमें जगत्को मायामय या मिथ्या कहने से यह नहीं जान पड़ता कि जगत्का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया । परमाथे अर्थात् ब्रह्मके साथ तुलनामें जगत्को मिथ्या कहें तो कह भी सकते हैं, बस इतना ही समझ पड़ता है । किन्तु दूसरा जो कारण कहा गया है, उसके अनुसार जगत्को मिथ्या कहना युक्तिसिद्ध नहीं जान पड़ता । यद्यपि ब्रह्म नित्य और जगत् अनित्य है, तो भी ब्रह्मशक्तिकी अभिव्यक्तिके द्वारा जगत् प्रकट होता है या प्रकाशित होता है, और वह शक्ति अव्यक्त रहने पर जगत् नहीं रहता, इस भावसे देखा जाय तो ब्रह्मकी नित्यता और जगत् की अनित्यताका परस्पर विरोध या असामञ्जस्य नहीं देख पड़ता । और, C ब्रह्मका परिवर्तन नहीं होता, ' यह कथन इस अर्थ में सत्य है कि ब्रह्म अपनी शक्ति और इच्छाके सिवा अन्य किसी कारणसे परिवर्तित नहीं होता । अतएव ब्रह्मकी अपनी शक्ति और इच्छाके द्वारा उत्पन्न जगत् के परिवर्तनको असंगत नहीं कहा जा सकता ( १ ) ।
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बहिर्जगत् सत्य है और बहिर्जगत् के विषयका ज्ञान वस्तुका स्वरूपज्ञान न होने पर भी वस्तुके स्वरूपसे उत्पन्न ज्ञान है," इस सिद्धान्तमें पहुँचने पर प्रश्न उठता है कि बहिर्जगत्का उपादन कारण क्या है ? और हम बहिर्जगत्की वस्तुका जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उसके साथ उस स्वरूपका क्या सम्बन्ध है ?
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( १ ) इस बारे में पं० प्रथमनाथ तर्कभूषणप्रणीत 'मायावाद और पं० कोकिलेश्वर विद्यारत्नप्रणीत उपनिषदके उपदेश ' पुस्तक के दूसरे खण्डकी अवतरणिका देखो । दोनों पुस्तकें बंगभाषामें हैं ।
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