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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
उस मृत्तिकाखण्डमें हमारी इन्द्रियके अगोचर अनेक गुण रह सकते हैं। किन्तु हमारे पास जाननेका उपाय न रहनेके कारण हम उन्हें जान नहीं पाते। जैसे आँखोंवाला मनुष्य उस मृत्तिकाखंडके रूपको देख पाता है, किन्तु जन्मका अंधा आदमी उसके वर्णके बारे में कुछ भी नहीं जान पाता, और यह भी नहीं जान सकता कि वर्ण वैसे पदार्थका एक गुण है, वैसे ही रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दको छोड़कर किसी छठे इन्द्रियके गुणको छः इन्द्रियोंवाला जीव जान सकता है; किन्तु हम पाँच इन्द्रियोंवाले जीव उस छठी इद्रियके अभावसे उसका कुछ भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते । मतलब यह कि हमारा बहिर्जगत्के विषयका ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है; वह निरपेक्ष ज्ञान नहीं है, और स्वरूपज्ञान भी नहीं है। इसीकारण किसी किसी दार्शनिक (१) के मतमें प्रथमतः बहिर्जगत्के अस्तित्त्वमें ही संदेह है। वे कहते हैं, हम हैं, इसीसे हमारे बहिर्जगत् है। हमने अपने मनकी सृष्टिको बाहर आरोपित करके निज निज बहिर्जगत्की सृष्टि कर ली है। परन्तु बहिर्जगत्-विषयक जाति और साधारण नाम स्पष्ट रूपसे हमारी सृष्टि है, वह बहिर्जगत्में नहीं है । शंकराचार्यका मायावाद भी इसी श्रेणीका मत है। लेकिन वह और भी अधिक दूर जाता है। कारण, उस मतके अनुसार जगत् मिथ्या है, केवल एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है। इस जगह पर युक्ति कहती है, यह बात इस अर्थमें सत्य है कि जगत्की सभी वस्तुएँ अनित्य और परिवर्तनशील हैं, केवल जगत्का आदिकारण ब्रह्म नित्य और अपरिवर्तनशील है। जगत्के अनेक विषयोंके सम्बन्धमें हमारा ज्ञान भ्रान्तिमूलक है। रस्सीमें साँप देखनेकी तरह, अविद्या या अज्ञानके कारण वस्तुका स्वरूप आवृत रहता है और उसमें भिन्नरूप विक्षिप्त होता है। और, उसी अज्ञानके कारण सब विषयोंका यथार्थ तत्त्व न जान पाकर हम सब तरहके दुःख भोगते हैं। जैसे, विषय-सुखकी अनित्यताको न समझकर नित्य जानकर हम उसका अनुसरण या पीछा करते हैं, और उसकी अनित्यताको कारण जब वह सुख फिर नहीं पाया जाता, तब उससे वञ्चित होकर सब तरहके क्लेशका अनुभव करते हैं। मगर ये सब बातें सच होने पर भी सम्पूर्ण बहिर्जगत् और उसके विषयका सारा ज्ञान मिथ्या नहीं कहा जा सकता।
(१) यथा, बर्कले ( Berkeley )