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शान और कर्म। [प्रथम भाग गया है उससे यह उपलब्ध होता है कि द्रव्यबोधक शब्दोंकी अपेक्षा पहले क्रियाबोधक शब्दोंकी सृष्टि होना ही संभव है। क्योंकि क्रियाके साथ ही साथ देहभांग, मुखभंगि और ध्वनि उत्पन्न होनेकी अधिक संभावना है। सभी शब्द धातुओंसे उत्पन्न हैं, यह प्राचीन संस्कृतके वैयाकरण पाणिनिका मत कुछ कुछ इसी बातका समर्थन करता है। __ अगर कोई कहे कि बच्चे के पहले बोल फूटनेके समय वह अक्सर वस्तुओंके. नाम पहले और क्रियाओंके नाम पीछे सीखता है, तो इस बातके उत्तरमें कहा जा सकता है कि भाषाकी प्रथम सष्टि बच्चों के द्वारा नहीं हुई-जवान और प्रौढ़ व्यक्तियोंहीके द्वारा हुई थी, और वर्तमान समयमें भी बच्चे भाषाको सीखते हैं, भाषाकी सृष्टि नहीं करते । किन्तु इस विषयके मूलकी परीक्षा करनेके समय यही देखना आवश्यक है कि जो धातु जिस अर्थका बोध कराती है वह क्यों उसी अर्थका बोध करानेवाली हुई ? जैसे ' अद्' धातुका अर्थ खाना (जिससे अदन शब्द, अँगरेजी Eat शब्द, लैटिन Edere शब्द, ग्रीक Edelv शब्द आदि आये हैं ), या ' स्वप्' धातुका अर्थ सोना ( जिससे स्वप्न शब्द, अँगरेजी Sleep शब्द, लैटिन Sopire शब्द, ग्रीक Uitvos शब्द आदि आये हैं) है, तो ये धातुएँ क्यों इन्हीं अर्थोंका बोध करानेवाली हुई, अर्थात् भक्षणकार्य क्यों अदू धातुके द्वारा और शयनकार्य क्यों स्वप् धातुके द्वारा प्रकट किया गया, इसके अनुसन्धानकी आवश्यकता है। कहा जा सकता है कि खाने अर्थात् चबानेके समय 'अद्' ऐसी ध्वनि मुखसे और सोते समय स्वप् अथवा कुछ कुछ इसीके अनुरूप ध्वनि नासिकासे निकलती है। किन्तु इस तरहकी व्याख्या ठीक है या नहीं, और अनेक धातुएँ ऐसी हैं जिनके सम्बन्धमें इस तरहकी व्याख्या की जा सकती है या नहीं, यह विषय विशेष सन्देहका स्थल है। अब यहाँपर इस विषयकी अधिक आलोचना नहीं की जायगी। केवल इतना ही कहा जायगा कि भाषासृष्टिके मूलतत्त्वका अनुसन्धान करनेके लिए, भाषातत्त्व अर्थात् भिन्न भिन्न भाषाओं में किस शब्दकी मूलधातु क्या है, और देहतत्त्व अर्थात् किस कार्यके साथ साथ देहकी और खास कर वाक्-यन्त्रकी किस तरहकी गति
और उसके द्वारा कैसी अंगभंगी और ध्वनिस्फुरण स्वभावसिद्ध है, इन सब विषयोंकी विशेष अभिज्ञताका प्रयोजन है। यह भी नहीं कहा जा सकता