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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
भाषाके सोचनेका काम चल ही नहीं सकता । अन्तर्दृष्टिके द्वारा हम जान सकते हैं कि जब हम किसी विषयको सोचते हैं, तब कभी तो वस्तुके स्पष्ट या अस्पष्ट रूपको और कभी उसके नाम या और किसी चिह्नको मनमें रखकर सोचते हैं। लेकिन हाँ, अगर सोचनेका विषय या वस्तु सूक्ष्म अथवा दुज्ञेय हुई, और उसका नाम जाना हुआ, तो रूपकी अपेक्षा नामहीकी अधिक सहायता ली जाती है। इसके सिवा जो लोग गूंगे, बहरे हैं, जिन्होंने लिखित भाषा नहीं सीखी अथवा ओष्ठसञ्चालन देखकर शब्दका निरूपण करना भी नहीं सीखा, वे सोच नहीं सकते यह बात भी नहीं कही जा सकती। बल्कि उनके कार्य देखकर समझ पड़ता है कि वे सोचनेके काममें अक्षम नहीं हैं।
जैसे अंक लिखनेसे गणनाका काम सहज होता है, लेकिन यह नहीं कहा जी सकता है, कि अंक खींचे बिना गणना हो ही नहीं सकती वैसे ही भाषाके द्वारा सोचनेका काम अवश्य हो जाता है । मगर यह बात कभी नहीं कही जा सकती कि भाषा न होती तो सोचनेका काम भी न चलता * । ___ यद्यपि भाषा चिन्तनका अनन्य अर्थात् एकमात्र उपाय नहीं है, किन्तु चिन्तनके साथ भाषाका सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ट है । जहाँतक समझमें आता है, उससे जान पड़ता है कि चिन्तनसे ही भाषाकी सृष्टि हुई है । चिन्ताका परिणाम निश्चल है, किन्तु प्रारंभ चंचल है। गहरी चिन्ता गंभीर सागरकी तरह स्थिर है, किन्तु हलकी चिन्ता किनारेके पासके सागरके समान अस्थिर हुआ करती है। मनुष्यके मनमें जब पहले चिन्ताका उदय होता है, तब साथ ही साथ मुख तरह तरहका बनता है, और देहके अन्यान्य भागोंमें चंचलता उपस्थित होती है, और उसके द्वारा शब्दकी उत्पत्ति होती है। फिर वह चिन्ताका विषय दूसरको जतानेके लिए व्यग्रता पैदा होती है और उसके द्वारा वह अंगभंगी और उससे उत्पन्न शब्द परिवर्द्धित होता है । संभव है कि इसी तरह पहले अस्फुट भाषाकी और पीछे परिस्फुट भाषाकी सृष्टि हुई हो।
भाषा-सृष्टिके संबंधमें ऊपर जो कहा गया वह केवल आनुमानिक आभास मात्र है। भाषातत्त्वके जानकार और दर्शन-विज्ञान-शास्त्रके ज्ञाता पण्डितोंने
* Darwin's Descent of Man, 2nd ed., p. 8
केली