________________
तीसरा अध्याय ]
अन्तर्जगत् ।
तिकी नहीं, किन्तु किसी खास गऊकी होती है। लेकिन हाँ, उस समय हम उसकी विशेषता, अर्थात् उसके खास रंग या, उसकी खास लंबाई-चौड़ाई पर लक्ष्य न रखकर गोनामकी जातिके लक्षणोंकी समष्टिपर लक्ष्य रखते हैं। पीछे कही गई बात ठीक जरूर है, लेकिन यह बात कहनेहीमें प्रकारान्तरसे यह कहा गया कि जातिके लक्षणोंकी समष्टिको एकत्र करके, अन्य लक्षणोंपर दृष्टि न रखकर, बुद्धि सोच सकती है। इसी कारण जाति अर्थात् जातीयलक्षणसमष्टि केवल नाम नहीं है, वह बोधगम्य अन्तर्जगत्का विषय है।
और, यद्यपि उस साधारण गुणसमष्टिको मूर्तिके द्वारा स्पष्ट अंकित करनेमें, उस मूर्तिमें सब विशेष गुण आप आ जाते हैं, लेकिन किसी विशेष गुणपर लक्ष्य न रखकर उस साधारण गुणसमष्टिको अस्पष्ट चित्रकी तरह सोचा जा सकता है, और सोचा जाता है । अन्तर्दृष्टिके द्वारा भी यही बात प्रमाणित होती है।
जाति वस्तु क्या केवल नाममात्र है ?-यह प्रश्न लेकर दार्शनिक विद्वानों में बहुत कुछ वादानुवाद हुआ है ® । जाति केवल नाम नहीं है, यह दिखाया जा चुका है। उधर पक्षान्तरमें यह भी कहा गया है कि जाति बहिर्जगत्की वस्तु नहीं है । जाति अन्तर्जगत्का विषय और बोधगम्य वस्तु है,
और किसी बहिर्जगत्की वस्तुकी जातीय गुणसमष्टि, उस जातिकी हरएक वस्तुमें, अन्यान्य गुणोंके साथ, बहिर्जगत्में, विद्यमान रहती है। ___ यद्यपि जाति केवल मात्र नाम नहीं है, तो भी जाति विषयकी आलोचनामें नाम एक अत्यन्त प्रयोजनीय वस्तु है । साधारणतः नाम या शब्द या भाषा, क्या जातिके और क्या वस्तुके, सभी विषयोंके चिन्तन ( सोचने ) में विशेष सहायता करते हैं। कोई कोई लोग इतनी दूरतक जाते हैं कि उनके मतमें भाषा चिन्तनका अनन्य उपाय है; भाषाके बिना चिन्तन हो ही नहीं सकता+। लेकिन यह बात ठीक नहीं । यद्यपि भाषा चिन्तनकार्यमें अच्छी तरह सहायता करती है, और भाषा न होती तो चिन्तनकार्य अधिक दूर तक अग्रसर नहीं हो सकता, तथापि यह बात नहीं कही जा सकती कि बिना
* Lewes's History of Philosophy, Vol. II, 24-32 और Ueberweg's History of Philosophy, Vol. I, 360-94, देखो । + Max Muller's Science of Thought, Chapters VI और X देखो