________________
३८
ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग सोना आदि कर्मोंका-श्रेणीविभाग करते हैं। बादको ' सूर्यका उदय प्रकाशका कारण है, ' ' अग्नि उत्तापका कारण है,' इत्यादि कार्य-कारण सम्बन्धका, और 'दिनके बाद रात होती है, ''आजके बाद कल होता है,' इत्यादि पूर्वापर सम्बन्धका, 'वृक्ष वृक्ष समान हैं, ''वृक्ष और पशु असमान हैं, ' इत्यादि साम्य-वैषम्य संबंधका श्रेणीविभाग करना सीखते हैं। और, पदार्थकी श्रेणी या जातिविभागके साथ साथ हरएक श्रेणी या जातिको उसके जातीय नामसे पुकारते हैं।
वस्तुओंकी जाति या श्रेणीका विभाग उनकी परस्परकी समता या विषमताके ऊपर निर्भर है। सब गऊ अनेक विषयमें समान हैं, इस लिए वे सब गोजाति हैं, और जो जो गुण या लक्षण गऊमात्रमें समान हैं उनकी समप्टिको गोत्व कहा जाता है। उसी तरह अश्वजाति, मेषजाति इत्यादिका निरूपण होता है। और, गज, घोड़ा, मेष आदि परस्पर कई विषयमें समान हैं, इसी लिए उन सभीको पशुजाति कहते हैं, और जो जो लक्षण उन सबमें हैं उनकी समष्टिको पशुत्व कहते हैं। वैसे ही पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि सब जीव कई विषयोंमें परस्पर समान हैं, इस लिए वे जन्तु जाति हैं, इत्यादि । इसी प्रकार जितना ही एक जातिसे उसकी अपेक्षा अधिक बड़ी जातिमें जाया जाता है, उतना ही एक ओर जैसे जातिके अन्तर्गत वस्तुकी संख्या बढ़ती रहती है, वैसे ही दूसरी ओर जातिके सामान्य गुणोंकी संख्या घटती जाती है।
पहले ही (ज्ञेय पदार्थके प्रकारभेदकी आलोचनामें) कहा जा चुका है कि बहिर्जगत्में पृथक् पृथक् वस्तुएँ हैं, और हरएकका खास गुण है, उनमें समता और विषमता भी है। इसके सिवा वस्तुसे पृथक् जाति बहिर्जगत्में नहीं है, वह केवल अन्तर्जगत्का विषय है । जातीय गुण वस्तुमें प्रत्यक्ष किये जाते हैं, किंतु कोई जाति या जातित्व उस जातिकी विशेष वस्तुसे अलग इन्द्रियद्वारा प्रत्यक्ष नहीं होता; वह केवल बुद्धिके द्वारा अंकित या अनुमित हो सकता है।
कोई कोई लोग यह भी कहते हैं कि बुद्धि भी मूर्तिके द्वारा जातिको नहीं अंकित कर सकती, केवल नामके द्वारा जाति-निर्देश कर सकती है। जैसे, हम जब गोजातिको ध्यानमें लाते हैं तब जो मूर्ति मनमें आती है वह गोजा