________________
सरा अध्याय] अन्तर्जगत्।
३७ wwwmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr धिक शान्त हो जाती है तब मन संकीर्ण हो जाता है। मनुष्य अत्यन्त वार्थपर और अदूरदर्शी हो जाता है। और कल्पना अगर अधिक प्रश्रय पाती • तो मनुष्य यथार्थ जगत्को भूलकर कल्पित जगत्में रहना चाहता है, और उसका सत्यके प्रति सच्चा अनुराग कम हो जाता है। इस लिए किसी भी रफकी अधिकता शुभ नहीं है।
हम प्रत्यक्षके द्वारा बहिर्जगतके विषयोंको जान सकते हैं। स्मृति जो है ह सब पूर्वपरिज्ञात विषयोंको ज्ञानकी परिधिके भीतर ले आती है। कल्पना से अनेक रूपोंमें परिवर्तित करके नये नये विषयोंकी सृष्टि करती है। और द्धि भी पूर्वपरिज्ञात विषयसे नाना प्रकारके नवीन तत्त्व निकालती है।
लेकिन कल्पनाके कार्य और बुद्धिके कार्यमें भेद यही है कि कल्पनाप्रसूत |ब विषय यथार्थ नहीं भी हो सकते हैं, किन्तु बुद्धिके द्वारा निरूपित सब वषयों या तत्त्वोंके यथार्थ होनेकी आवश्यकता है। प्रधानतः बुद्धिके कार्य
तरहके हैं-१, ज्ञात विषयको श्रेणीबद्ध करना और २, ज्ञात विषयसे ज्ञात विषयका निरूपण)
हमारे जाने हुए विषयोंकी संख्या इतनी अधिक है और वे इतने प्रकारके र्थाित् विविध हैं कि कुछ दिनके बाद उन्हें श्रेणीबद्ध न कर सकनेसे ज्ञान
भ और पूर्वलब्ध ज्ञानके फलकी प्राप्ति उत्तरोत्तर असाध्य हो उठती है। से, किसी द्रव्य-भाण्डारमें बहुतसी तरह तरहकी चीजें भरी हों तो उन्हें शृिंखलित रूपमें रक्खे बिना उसमें नई चीज रखनेका स्थान क्रमशः कम से जाता है, और प्रयोजनके अनुसार कोई चीज उसमेंसे खोज निकालना ठिन हो जाता है, वैसे वही हाल हमारे ज्ञान-भाण्डारका होता है।
बुद्धि हमारे जाने हुए सब विषयोंको श्रेणीबद्ध करके सजा रखती है, और ह श्रेणीबद्ध करना बुद्धिके प्रथम विकाससे ही क्रमशः आरंभ होता है। बच्चा क वस्तु देखकर बादको अगर वैसी ही वस्तु देखता है तो उसे प्रथमोक्त स्तुके नामसे पुकारता है। वह द्रव्य, गुण, कर्म, इन त्रिविध पदार्थोंका णीविभाग करता है, और बादको सम्बन्धका श्रेणीविभाग करना सीखता । कारण, प्रथमोक्त त्रिविध पदार्थ सहजमें ज्ञेय हैं, और सम्बन्ध उसकी पेिक्षा दुज्ञेय पदार्थ है। हम पहले मनुष्य, पशु, वृक्ष, फल आदि द्रव्योंकाफेद, लाल, काले, पीले आदि वौँ अर्थात् गुणोंका-जाना, खाना, पीना,