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ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
ज्ञात विषयको तोड़ कर गढ़ कर सुन्दरको अधिकतर सुंदर, भयानकको अधिकतर भयानक, करुणको अधिकतर करुण बनाकर दिखाती है, जैसा कि काव्यके ग्रन्थोंमें देखा जाता है। कभी कल्पना जो है वह ज्ञानलाभकी सुविधाके लिए आलोच्य विषयके जटिल भागको तोड़ फोड़ कर सरल करती हुई क्षुद्रको बृहत् और बृहत्को क्षुद्र बनाती हुई, या अपरिचिलको तत्समभावापन्न परिचितकी पोशाकमें सजाकर सामने उपस्थित करती है, जैसा कि विज्ञानदर्शन आदिके ग्रन्थोंमें पाया जाता है। और कभी, गहरी गवेषणामें जहाँ बुद्धि किसी ध्रुव अवलम्बनको नहीं पाती, वहाँ कल्पना अस्थायी अवलम्बन आरोपित करके तत्त्वकी खोजके कामको सुकर बना देती है, जैसे विज्ञानशास्त्र में व्योम (ईथर) की कल्पना है । कल्पना केवल कविकी ही आनन्दमयी सहचरी नहीं है। कल्पना दार्शनिक और वैज्ञानिकको भी राह दिखानेवाली साथिन है।
कल्पनाके सम्बन्धमें दो बातें विशेष विवेचनाके योग्य हैं। कल्पनाके विषय, और २-कल्पनाके नियम ।
१--कल्पनाके विषय । पूर्वपरिज्ञात विषयोंको लेकर ही कल्पनाका कार्य होता है। जाने हुए विषयको तोड़-फोड़कर उसीके संयोग-वियोगद्वारा हम कल्पित विषयकी सृष्टि करते हैं। कोई कोई कहते हैं कि कल्पनाके कार्य दो तरहके हैं। कभी जाने हुए विषयको तोड़-फोड़कर गढ़ना, जैसे कविकी कल्पनाका कार्य । और कभी नये विषयकी सृष्टि करना, जैसे नवीन तत्त्वका आविष्कार या नई तरहके यन्त्र आदिका निर्माण । किन्तु कुछ सोचकर देखनेहीसे समझमें आ जाता है कि नवीनकी नवीनता निरवच्छिन्न या सम्पूर्ण नवीनता नहीं है-वह पुरातनके संयोग-वियोगसे ही रची गई है।
२-कल्पनाके नियम । वर्तमान और निकटवर्तीके साथ कल्पनाका सम्बन्ध बहुत थोड़ा है; भूत, भविष्य और दूरस्थितके साथ ही उसका अधिक सम्बन्ध है। यही कल्पनाका स्थूल नियम है। जो लोग वर्तमान और निकटस्थ व्यापारमें व्यस्त रहते हैं उनके मनमें कल्पना अधिक स्थान नहीं पाती, काव्य आदि कल्पनासे उत्पन्न पदार्थ भी उन्हें अधिक प्रीतिप्रद नहीं होते । वैसे ही जिनके चित्तमें कल्पना प्रबल है, वे केवल वर्तमान और निकटस्थ विषयको ही लेकर तन्मय नहीं रह सकते-उनका मन भूत, भविष्य और दूरस्थ विषयोंकी ओर दौड़ता रहता है । कल्पना जब अत्यन्त