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दूसरा अध्याय ]
ज्ञेय।
होगी। इस अध्यायमें दोनोंके संबंधमें एकत्र जो कहा जा सकता है वही यहाँ विवेचनका विषय है।
ज्ञेयत्व पदार्थका एक लक्षण है सही, लेकिन वह अवच्छेदक लक्षण नहीं है। सभी पदार्थ ब्रह्मके अर्थात् चैतन्यमय स्रष्टाके ज्ञेय हैं, किन्तु इस तरहके अनेक पदार्थोंका होना संभव है, जो अन्य किसी ज्ञाताके ज्ञेय नहीं हैं। और, अन्य कोई अगर न होता तो भी वे सब पदार्थ रह सकते । इस तरहके असंख्य पदार्थोंका रहना संभव है जिनके बारेमें हम कुछ नहीं जानते, और जिनके सम्बन्धमें एकदम ज्ञानका अभाव होनेके कारण कुछ जानतेकी आकांक्षा भी कभी नहीं होती । और, जिन पदार्थोंके बारे में हम जानते हैं उनके बारेमें भी यह नहीं कहा जा सकता कि हम न होते तो उनका भी अस्तित्व न होता। हमारे न रहने पर भी जगत् रह सकता । हाँ, यह दूसरी बात है कि हम जिस जगत्को देखते हैं, अर्थात् जगत्को हम जैसा देखते हैं, वह हमारे न रहनेसे रहता या न रहता। इसीकी आलोचना आगे की जाती है।
ज्ञेयत्व पदार्थका अवच्छेदक लक्षण नहीं है, किन्तु वह एक अत्यन्त आश्चर्यमय लक्षण है । अपनेसे पृथक् पदार्थका अस्तित्व और गुण मैं जानता हूँ, यह सोचकर देखनेसे अति विचित्र व्यापार देख पड़ता है (यह बात सहज ही कही जा सकती है कि कोई पदार्थ मेरी ज्ञानेन्द्रियके साथ संयोगको प्राप्त होता है तो मुझमें उसके अस्तित्वका ज्ञान उत्पन्न होता है, और जो जो इन्द्रिय जिस जिस गुणका ज्ञान कराती है, उस उस इन्द्रियके साथ संयोग होनेसे पदार्थके उस उस गुणका ज्ञान प्राप्त होता है। किन्तु ये बातें कहना जितना सहज है उतना उनका मर्म हृदयंगम होना सहज नहीं है। तो किस पदार्थके साथ मेरी इन्द्रियका संयोग कैसा है, दूसरे मेरी इन्द्रियके साथ मेरा संयोग कैसा है, तीसरे इन दोनों संयोगोंका फल पदार्थविषयक ज्ञान मुझमें ही किस तरह प्रकट होता है, इन बातोंको अनिर्वचनीय कहकर स्वीकार करना पड़ता है। __ ऊपर कहा गया है कि पूर्ण ज्ञानके लिए ज्ञाता और ज्ञेय एक हैं, और अपूर्ण ज्ञानके लिए ज्ञाता और ज्ञेय अलग अलग हैं। और, ज्ञाताके न रहने पर भी पदार्थ रह सकता है, तो भी मैं न होता तो मैं जो यह जगत् देख रहा हूँ सो वह जगत् ठीक ऐसा ही रूप धारण करता या नहीं, यह बात आलोचनाके
ज्ञान०-२