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दूसरा अध्याय।
ज्ञेय ।
ज्ञाता अर्थात् आत्मा जो जान सकता है, अथवा जानना चाहता है वही ज्ञेय है।
कोई कोई कहते हैं कि आत्मा जिसे जान सकता है केवल उसीको ज्ञेय कहना उचित है, और आत्मा जिसे जानना चाहता है लेकिन उसे जाननेकी शक्ति उसमें नहीं है, उसे अज्ञेय कहना चाहिए। यह बात पहले सुनते ही संगत मालूम हो सकती है, लेकिन जरा सोचकर देखनेसे, पहले जो कहा गया है वही युक्तिसिद्ध जान पड़ेगा। क्योंकि जो जाननेकी आकांक्षा होती है वह जाननेकी शक्ति न होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह जाननेके योग्य नहीं है। इसके सिवा, जो जाननेकी आकांक्षा होती है, उसका स्वरूप न जान सकने पर भी, उसका अस्तित्व तो जाना गया है; अथवा यों कहो कि उसके रहने-न रहनेके फलाफलका विचार किया जा सकता है। अतएव उसे एकदम अज्ञेय नहीं कहा जा सकता ।
अद्वैतवादी लोगोंके मतमें ज्ञाताको पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ज्ञेय और ज्ञाताका पार्थक्य नहीं रह सकता । किन्तु जब तक वह पूर्ण ज्ञान नहीं पैदा होता तब तक ज्ञेय और ज्ञाताका पार्थक्य अवश्य रहेगा। इससे यह निष्कर्ष निकला कि ज्ञाताका प्रथम और प्रधान ज्ञेय वह स्वयं ही है।
ज्ञेय पदार्थके दो भाग किये जा सकते हैं-आत्मा या अनात्मा, या अन्तजगत् और बहिर्जगत् । दोनोंकी ही अलग अलग आलोचना आगे चल कर