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ज्ञान और कर्म ।
[ प्रथम भाग .
योग्य है । वह आलोचनाका विषय प्रकारान्तरसे इस प्रश्नका रूप धारण करता है कि ज्ञाता ज्ञेय पदार्थकी उत्पत्ति है या ज्ञेयसे ज्ञाताकी उत्पत्ति है ? अर्थात् मुझसे जगत् है, या जगत्ले मैं हूँ ?
पहले जान पड़ सकता है कि ऊपर कहा गया प्रश्न निष्कर्मा व्यवहारबुद्धिविहीन नैयायिक पण्डितके "तेलका आधार पात्र है, या पात्रका आधार तेल है ?" इस प्रश्नकी तरह हँसने योग्य है । किन्तु तनिक सोचकर देखनेसे समझ पड़ेगा कि उसमें तरल हास्य रसकी अपेक्षा अत्यन्त गहरा रहस्य निहित है ।
वेदान्त दर्शनके अद्वैत वादमतमें कहा है:
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ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
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ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीवात्मा और ब्रह्म एक ही हैं, ' " और आत्माके भ्रम या अध्यासके कारण उसके निकट यह जगत् सत्य प्रतीत होता है । पाश्चात्य क्रमविकासवाद या अभिव्यक्तिवाद ( Evolution ) माननेवाले लोग कहते हैं कि यह अनादि अनन्त जगत् ही सत्य है, और आत्मा या 'मैं' उस जगत्से क्रमविकासके द्वारा प्रकट हुए हैं । एक मतमें आत्मा ही मूल है, और जगत्को आत्मा अपने भ्रमके कारण अपने सामने प्रतीयमान करता है । दूसरे मतमें जगत् ही मूल है, और जगत्के क्रमविकास या अभिव्यक्तिके प्रवाहमें भसंख्य जीव जलबुद्बुदकी तरह उठते और कुछ समय तक क्रीड़ा करके विलीन हो जाते हैं।
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जगत्को चैतन्यमय ब्रह्मका विकास और जड़को चतन्यशक्तिका रूपान्तर अगर माना जाय, तो नीहारिकाके परमाणुपुंज में और जगत्के हरएक परमाणु प्रछन्नरूप से चैतन्यशक्ति है, यह बात कहने में कोई बाधा नहीं रहती, और यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि जगत्की अभिव्यक्तिके द्वारा आत्माकी उत्पत्ति होती है । फलतः इस भावसे यह विषय ग्रहण करने पर अभिव्यक्ति केवल सृष्टिकी प्रक्रिया मात्र समझ पड़ती है । उसके सिवा जड़से क्रमशः चैतन्यकी उत्पत्ति होना समझमें नहीं आता । जो लोग यह कहते हैं कि क्रमविकासके द्वारा जड़से चैतन्यकी उत्पत्ति होती है और देहके नाशके साथ साथ आत्माका नाश होता है, उनके मतके विरुद्ध जो बड़ी बड़ी भारी आपत्तियाँ हैं उनका वर्णन पहलेके अध्यायमें किया जा चुका है। अब देखना