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छठा अध्याय ]
धर्मनीतिसिद्ध कर्म ।
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वर्तन अवश्य ही उसके साथ ही साथ होता है, किन्तु जगत्के धर्मशास्त्रप्रणेता लोग साधारण मनुष्यमात्र नहीं थे, और असाधारण ज्ञानसे जाने गये जो सब तत्त्व शास्त्रोंमें कहे गये हैं उनमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, वे सब जमय ग्राह्य अथवा माननीय हैं, उनका संशोधन अनावश्यक और असंभव है। हिंदू लोग कहते हैं, वेद आदि धर्मशास्त्र अपौरुषेय और अभ्रान्त हैं, ईसाई लोग बाइबिलको वैसा ही बताते हैं, मुसलमानोंके मतसे कुरानशरीफ भी वैसी ही किताब है। मैं इस समय यहाँ पर इन सब बातोंका शास्त्रीय विचार नहीं करना चाहता । किन्तु युक्तिमूलक आलोचना की जाय, तो कहा जा सकता है कि पृथ्वीके धर्मशास्त्रप्रणेता लोग जो ईश्वरका अवतार या अभ्रान्त कहकर संमानित किये गये हैं, उसका मतलब इसी अर्थमें संगत है के उनके असाधारण मनोनिवेशके फलसे, उनकी आत्मामें अनन्त चैतन्यका अलौकिक विकास होनेके कारण, वे सब आध्यात्मिक तत्त्वोंको सर्व साधारणकी अपेक्षा अधिकतर विशदभावसे जान सके थे, और औरोंको भी जता सके थे। उन सब तत्त्वों में से कुछ नित्य और अपरिवर्तनीय हैं, और कुछ ऐसे हैं कि वे जिन जिन देशों में जिन जिन समयोंमें आविर्भूत होते हैं, उन उन देशों और समयोंके लिए विशेष उपयोगी होते हैं, अन्य देशों और समयोंके लिए उपयोगी नहीं होते । इस द्वितीय श्रेणीके धर्मतत्त्वों पर लक्ष्य रखकर ही मनीषी लोगोंने देशधर्म और युगधर्मकी बातें कही हैं। इसके सिवा धर्मशास्त्रप्रणेता लोग अपने अपने धर्मका जिस भावसे प्रथम प्रचार करते हैं, उस उस धर्मको ग्रहण करनेवाले लोग अपने दोषसे कुछ समयके बाद समयके फेरसे उसी भावसे उसका आचरण नहीं कर सकते, और उसका फल यह होता है कि धर्मकी ग्लानि उपस्थित होती है। इन्हीं सब कारणोंसे धर्मका मूल अपरिवर्तनीय होने पर भी, धर्मके संशोधनका प्रयोजन उपस्थित होता है।
धर्मका संशोधन आवश्यक होने पर भी याद रखना होगा कि वह बहुत ही दुरूह कार्य है, उसको हर एक आदमी नहीं कर सकता । बहुत ही सावधान होकर श्रद्धाके साथ यह काम करना चाहिए । धर्मका संशोधन करनेके लिए प्रचलित धर्मके दोषोंका कीर्तन करना पड़ता है, और उसके साथ ही उसके ऊपर लोगोंके मनमें कुछ अश्रद्धाका भाव पैदा करना पड़ता है। धर्मके