________________
३६०
ज्ञान और कर्म ।
[द्वितीय भाग
स्कूलों में अनेक धर्मसम्प्रदायके विद्यार्थी आकर जमा हो सकते हैं। सबके लिए अलग अलग सांप्रदायिक धमाकी शिक्षाका प्रबन्ध हो नहीं सकता।
इसके सिवा धार्मिक बातोंकी आलोचनाके लिए सभासमितियोंके अधिवे. शन (बैठकें ) होनेका प्रबन्ध भी रहना चाहिए । इस देशमें कथा-पुराण बाँचनेकी जो चाल थी, और इस समय भी कुछ कुछ है, वह साधारणधर्मकी शिक्षाके लिए विशेष उपयोगी है और उसका अधिकतर प्रचार होना वांछनीय है । कथा-पुराण वगैरह जिस भाषामें बाँचे जाते हैं उसे बालक-बूढ़े और औरतें सब सहजमें समझ जाते हैं। कथा बाँचनेवाले व्यासकी वक्तता. शक्ति और संगीतशक्तिके प्रयोगसे कथा जो है वह एक साथ ही ज्ञान और आनन्द देकर सहज ही सब श्रेणियोंके श्रोताओंका चित्त अपनी ओर खींचनेमें समर्थ होती है।
- धर्म-संशोधन। धर्मका संशोधन करना मनुष्यके प्रति मनुष्यका धर्मविषयक तीसरा कर्तव्य है।
धर्म एक सनातन पदार्थ है। किसी समयमें भी उसका परिवर्तन नहीं हो सकता। किन्तु जगत् निरन्तर परिवर्तनशील है, मनुष्यकी प्रकृति और ज्ञान भी बदलता रहता है। अतएव मनुष्य जिसे धर्म मानता है, मनुष्यकी प्रकृति और ज्ञानके परिवर्तनके साथ ही साथ वह भी परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण धर्मकी ग्लानि और अधर्मके अभ्युत्थानकी बात गीतामें (१) कही गई है । और, इसी कारण मनु भगवानने कहा है
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । अन्ये कलियुगे नृणां युगहासानुरूपतः ॥
-मनु ११८५ । अर्थात् उत्तरोत्तर ह्रास होनेके अनुसार मनुष्योंके धर्म सत्ययुगमें और, त्रेतामें और, द्वापरमें और, और कलियुगमें और ही होते हैं। • अनेक लोग कहते हैं कि यद्यपि साधारण मनुष्यका ज्ञान परिवर्तनशील है, क्रमशः विकासको प्राप्त होता है, और उस ज्ञानसे प्राप्त तत्त्वका भी परि(१) यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ (गीता अ० ४, श्लोक७ )