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[ द्वितीय भाग
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ऊपर अश्रद्धा उत्पन्न करा देना जितना सहज है, उस पर फिर श्रद्धा उत्पन्न करा देना उतना सहज नहीं है । अतएव असावधान या अदूरदर्शी आदमी अगर धर्मका संशोधन करना चाहता है तो उसके द्वारा लोगोंके धर्म- लोपकी आशंका रहती है । फिर धर्मपर जिन्हें अन्धविश्वास है, उनका वह विश्वास तर्कसे जानेवाला नहीं । और, उनके साथ प्रचलित धर्मके बारेमें अश्रद्धासूचक. बातचीत करना, उनको मर्मस्थल में कष्ट पहुँचनेवाली वेदना देना है । इसी लिए धर्मसंस्कारकको अपना काम उद्धतभावसे या अनास्थाके साथ नहीं करना चाहिए ।
और कर्म ।
ज्ञान
हिन्दूधर्मका संशोधन |
अन्य धर्मोंके संशोधनकी बात अगर मैं कहूँगा तो वह अनुचित होगा। इस लिए यहाँ पर केवल हिन्दूधर्मके संशोधनके सम्बन्ध में ही मैं दो-एक बातें कहूँगा । क्योंकि इसका मुझे अधिकार है । हिन्दूधर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है । समयानुसार इसमें बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है । और, यह भी नहीं कहा जा सकत ह कि इस समय इसके संशोधनका प्रयोजन नहीं है । लेकिन अधिकांश संस्कारक (रिफार्मर) जिन संस्कारों को बहुत ही आवश्यक समझते हैं, वे सभी उतने प्रयोज• नीय और निश्चित रूपसे हितकर नहीं कहे जा सकते। जिन संशोधनोंका आन्दोलन हो रहा है, या हुआ है, उनकी अच्छी तरह पूर्णरूपसे आलोचन इस छोटेसे ग्रन्थ में हो नहीं सकती । उनमेंसे (१) मूर्तिपूजानिवारण, (२) पूजा में पशु - बलिदानका निवारण, ( ३ ) बाल्यविवाह - निवारण, ( ४ ) विधवाविवाह चलाना, ( ५ ) जातिभेद दूर करना, ( ६ ) कायस्थोंको यज्ञोपवीत संस्कारका अधिकार, (७) विलायतसे लौटे लोगों को समाज में मिलाना, इन कई विषयोंके बारे में यहाँ पर दो-एक बातें लिखी जायँगी । १ मूर्ति पूजा निवारण ।
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मूर्तिपूजाके सम्बन्धमें पहले ही कहा जा चुका है कि अगर कोई मूर्तिको ही ईश्वर समझ बैठे, तो वह उसका बिल्कुल ही भ्रम है । किन्तु यदि कोई निराकार ईश्वर में मन लगाना कठिन या असंभव जानकर, उनको साकार मूर्तिमें आविर्भूत मानकर, उनकी उपासना करता है, तो उसका वह कार्य निन्द
नीय नहीं कहा जा सकता । हिन्दुओंकी पूजा-प्रणाली में ही इसके अनेकानेक