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पहला अध्याय ]
ज्ञाता।
किसीके मतसे आत्माकी उत्पत्ति, अर्थात् परमात्मासे अलग होकर आस्माकी उत्पत्ति, देहके साथ साथ होती है; स्थिति अनन्त कालतक रहती है; गति बीच बीचमें अवनतिकी ओर होनेपर भी अन्तको अन्नतिकी ओर होती है; और अन्तको वह ब्रह्ममें फिर मिल जाता है । अन्यान्य मतोंकी अपेक्षा यही मत अधिकतर युक्तिसंगत जान पड़ता है।
ज्ञाताके अर्थात् आत्माके स्वरूप और उत्पतिका निर्णय हमारी संकीर्ण बुद्धि के लिए अत्यन्त दुरूह है, और अज्ञेयवादी लोगोंके मतसे हमारे ज्ञानसे अतीत है। किन्तु ज्ञाताकी शक्ति या क्रियाका निर्णय उसकी अपेक्षा सहज है और अन्तर्दृष्टि उस निर्णयका प्रधान उपाय है। तो भी आवश्यकताके अनुसार अन्यान्य प्रमाणों के द्वारा अन्तर्दृष्टिके फल की परीक्षा कर लेना उचित है। (ज्ञाताकी शक्ति या क्रिया अनेक प्रकारकी है। उसका श्रेणी-विभाग करना हो तो तीन श्रेणियाँ की जा सकती हैं-जानना, अनुभव करना, और चेष्टा करना, या कार्य करना। किसी विषयका तत्व या सत्यता हम जानना चाहते हैं, वह सुखकर है या दुःखकर है-यह हम अनुभव करते हैं,
और किसी विषयको जानकर या उससे होनेवाले सुख-दुःखका अनुभव करके . क्या करेंगे-यह चेष्टा करते हैं।
अन्तर्जगतका तत्त्व जाननेका उपाय भीतरी इन्द्रिय या मन है। बहिर्जगतका तत्त्व जाननेका उपाय चक्षु, श्रोत्र, वाण, रसना और त्वक् ये पाँच बाहरी इन्द्रियाँ हैं । इनके सिवा स्मृति, कल्पना, और अनुमानके द्वारा अन्य अनेक प्रकारके तत्त्व जाने जा सकते हैं। इन सब विषयोंके सम्बन्धमें ' अन्तर्जगत् , ' ' बहिर्जगत् ' और 'ज्ञानलाभके उपाय' शीर्षक अध्यायोंमें कुछ आलोचना की जायगी।
सुख-दुःखका अनुभव करना भी एक प्रकारका जानना है-अर्थात् अपनी उस घड़ीकी अवस्था जानना है। मगर हां, अन्य प्रकारके जाननेक साथ भेद यही है कि इस जगह पर जाननेका विषय कोई तत्व या सत्य नहीं है, बल्कि ज्ञाताका अपना सुख-दुःख या अन्यरूप अवस्था है। इसी जाननेको यहीं पर अनुभवके नामसे अभिहित किया है। किन्तु आगे चल कर अनुभव और ज्ञानविभागके विषयकी और ' अन्तर्जगत् ' शीर्षक अध्यायमें इस विषयकी और भी कुछ आलोचना की जायगी।