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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
कोई कहता है कि वर्तमान देहकी उत्पत्तिके बहुत पहलेसे, अर्थात् अनादि कालसे, आत्माका अस्तित्व है और वह भिन्न भिन्न देहोंमें रहता आया है, ऐसे ही वर्तमान देह नष्ट होनेके बाद भी आत्मा भिन्न भिन्न देह धारण करके उनमें रहेगा। जिस आत्माके शुभाशुभ कर्मफल क्षय होंगे वही मुक्ति प्राप्त करेगा, अर्थात् ब्रह्ममें लीन होगा। जो लोग जन्मान्तर मानते हैं उनका यही मत है। इसके अनुकूल युक्ति यह है कि मंगलमय ईश्वरकी सृष्टि में सभी जीव जो सुखी नहीं देख पड़ते-कोई सुखी और कोई दुखी देख पड़ता हैउसका कारण जीवके पूर्वजन्मके कर्मफलके सिवा और कुछ भी नहीं हो सकता । और, पहले जन्मका कर्मफल क्यों अशुभ हुआ, इसका उत्तर दिया नहीं जा सकता, इसी कारण जीवके पूर्वजन्म असंख्य और अनादिकालव्यापी मानने पड़ते हैं। लेकिन इस युक्तिके विरुद्ध यह कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म अगर है तो दूसरे जन्ममें उसका कुछ भी स्मरण न रहना एक बड़े ही आश्चर्यकी बात है। जल्दी हो या देरमें हो, जीव क्रमशः सुपथगामी होकर परिणाम में अनन्तकालस्थायी सुख पावेगा, यह बात मानी जाय तो उस अनन्त कालके सुखके साथ तुलना करनेसे इहकालका थोड़े दिनोंका दुःख कुछ नहीं है । और, उस दुःखका कारण बतानेके लिए असंख्य होनेपर भी एकदम विस्मृत पूर्वजन्मका अनुमान करना अनावश्यक और असंगत है। तो भी इस जगह पर एक बात याद रखनी चाहिए । यद्यपि आत्मा देहसे अलग है और यद्यपि पूर्वजन्मवादके विरुद्ध अनेक युक्ति-तर्क हैं तथापि देहावच्छिन्न आत्मामें देहकी प्रकृतिके अनुसार अनेक दोष-गुण आजाते हैं, और हमारी देहकी प्रकृति हमारे पूर्वपुरुषोंकी देहकी प्रकृतिके ऊपर निर्भर है । अतएव आत्माका पूर्वजन्म न रहने पर भी, और आत्मा जन्मान्तरके कर्मबन्धनमें बँधा हुआ न होने पर भी, अतीतके साथ आत्माका विशेष सम्बन्ध है, और आत्माको प्रकारान्तरसे पूर्वपुरुषोंके कर्मफलका भागी होना पड़ता है।
कोई कहते हैं, आत्माकी उत्पत्ति वर्तमान देहके साथ है, और अवस्थिति अनन्तकालके लिए है। इस एक जन्मके कर्मफलसे उस अनन्तकालके शुभाशुभका निर्णय होता है। ईसाइयोंका यही मत है। किन्तु युक्तिके द्वारा यह प्रमाणित नहीं होता कि इस अल्पकालस्थायी इहजीवनका कर्मफल जीवके अनन्तकालके सुखदुःखका कारण किस तरह संगत हो सकता है। ।