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पहला अध्याय ]
ज्ञाता ।
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यद्यपि ज्ञानके द्वारा आत्माके स्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती, किन्तु यह विश्वास करनेका यथेष्ट कारण है कि आत्मा जगत् के चैतन्यमय आदि कारणका. अर्थात् ब्रह्मका अंश या शक्ति है
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आत्मा ब्रह्मका अंश या शक्ति है, इस कथनका अर्थ ठीक करनेसे कारणका निर्देश आपसे हो जायगा । यहाँ पर यह संशय सहज ही उठ सकता है कि. अखण्ड सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान् ब्रह्मका अंश या शक्ति उससे अलग कैसे रहेगी ? इस संशयको दूर करना जरूरी है । इस संशय के सम्बन्ध में, वेदान्तभाप्यके प्रारंभ में, शंकराचार्यजीने कहा है कि अहं ज्ञान और ' आत्मा ब्रह्मसे अलग है' इस बोधका मूल अध्यास या अविद्या है, और यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होने पर आत्मा और ब्रह्मके एकत्वकी उपलब्धि होगी । पूर्ण ज्ञान उत्पन्न होने पर ज्ञाता और ज्ञेय, आत्मा और अनात्मा, जीव और ब्रह्मकी एकता उपलब्ध हो सकती है जब तक वह पूर्ण ज्ञान नहीं उत्पन्न होता तबतक उस अध्यास या अपूर्ण ज्ञानका अतिक्रमण असाध्य है । शंकराचार्यजीने भी अध्यासको अनादि, अनन्त और नैसर्गिक बतलाया है । अध्यास या अपूर्ण ज्ञानके सम्बन्धमें आगे चलकर, 'ज्ञानकी सीमा' शीर्षक अध्यायमें कुछ आलोचना की जायगी । इस समय यहाँ पर केवल इतना कह देना ही यथेष्ट होगा कि सर्वव्यापी अखण्ड ब्रह्म अपनी अनन्त शक्तिके प्रभावसे भिन्न भिन्न आत्माके रूपसे प्रकट हुए हैं, ऐसा अनुमान करना हमारे अपूर्ण ज्ञानके लिए असंगत नहीं है; और आत्माकी सृष्टि किस तरह हुई, यह सोचते समय उक्त अनुमान ही अपूर्ण ज्ञानकी अनन्य गति है ।
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आत्माकी उत्पत्ति और स्थिति, अर्थात् ब्रह्मकी पृथक् भावसे आत्माके रूपमें अभिव्यक्ति और स्थिति, किस समय से है और कब तकके लिए है, इस बारेमें अनेक मत हैं ।
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कोई कहता है, देहकी उत्पत्तिके साथ साथ आत्माकी उत्पत्ति है, जब तक देहकी स्थिति है तब तक आत्माकी भी स्थिति है, और देहके विनाश के साथ ही आत्माका लय हो जाता है । भारतके चार्वाक और यूरोपके जड़वादी लोगों का यही मत है । किन्तु यह पहले ही दिखाया जा चुका है कि ' मासे भिन्न पदार्थ है, और देहनाशके साथ ही आत्माका लोप या नाश हो जाता है ' यह अनुमान ठीक नहीं है ।
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