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ज्ञान और कर्म । [प्रथम भाग अन्तर्दृष्टिका अवसर पाते ही यही उत्तर पानेके लिए व्याकुल होता है । ज्ञाता अन्य पदार्थके स्वरूपको जहाँ तक जान सकता है, अपने स्वरूपको वहाँ तक नहीं जान सकता-यह विश्वकी एक विचित्र पहेली है। यह किसीको याद नहीं रहता कि किस तरह पहले आत्मज्ञानका उदय होता है, दूसरेसे पूछ कर भी नहीं जाना जाता। कारण, आत्मज्ञानका प्रथम उदय होनेके समय किसीके वाक्शक्ति नहीं स्फुरित होती । किन्तु उक्त सब प्रश्नोंके उत्तर साक्षात् सम्बन्धसे ज्ञानगम्य न होने पर भी ज्ञाता इस बारे में निश्चित नहीं रह सकता। उत्तर पानेकी आकांक्षा निवृत नहीं होती, और परोक्षमें या प्रकारान्तरसे युक्तिके द्वारा जो उत्तर मिलता है वह ज्ञानकी सीमाके अन्तर्गत न होने पर भी विश्वासकी सीमाके बाहर नहीं ह । ___ आनुषंगिक रूपसे इस जगह ज्ञान और विश्वासके सम्बन्धमें दो एक बातें कहना जरूरी है। ऐसे अनेक विषय हैं जिनके पास ज्ञानकी पहुँच नहीं है, मगर विश्वास उन तक पूर्ण रूपसे पहुँचता है, अर्थात् ज्ञानके द्वारा हम जिसके स्वरूपका अनुमान नहीं कर सकते, किन्तु उसके ऊपर विश्वास किये बिना नहीं रहा जाता । जैसे-हम अनन्त कालको अपने ज्ञानके अधीन नहीं कर सकते, लेकिन यह भी नहीं समझ सकते कि कालका आदि या अन्त है,
और 'काल अनन्त है' यह विश्वास किये बिना नहीं रह सकते। ' विश्वासको एक प्रकारका अव्यक्त ज्ञान भी कहें तो कह सकते हैं । हम जो कुछ जानते हैं उसे अपनी बुद्धिके अधीन कर सकते हैं, और कमसे कम उसके कुछ लक्षण समझ सकते हैं । किन्तु जिसे जानते नहीं, केवल विश्वास करते हैं, उसे अनेक स्थलों पर समझ नहीं सकते, उसके लक्षणके सम्बन्धमें केवल 'नेति नेति' (ऐसा नहीं है-ऐसा नहीं है) इतना कह सकते हैं, मगर उसका अस्तित्व स्वीकार किये बिना नहीं रह सकते।
विश्वासका मूल सब जगह समान नहीं है। अनेक स्थलोंपर विश्वास अमूलक या कुसंस्कारमूलक और त्यागके योग्य है, और अनेक स्थलोंपर वह समूलॅक या सयुक्तिमूलक और अपरिहार्य होता है।
'विश्वास' शब्द ज्ञाताको परोक्षसे प्राप्त, अर्थात् साक्षात् सम्बन्धमें अप्राप्त ज्ञानका भी बोध कराता है। यह कहनेकी जरूरत नहीं कि ऊपर उक्त शब्दका प्रयोग इस अर्थमें नहीं किया गया है।