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पहला अध्याय ]
ज्ञाता ।
चाहता । आत्मा तो चिन्तन आदि क्रियाओं में देहकी सीमाको लाँघकर 'अनन्त' के बीच फाँदना चाहता है । वह यद्यपि अनन्तको पकड़ नहीं सकता, लेकिन अनन्तको छोड़कर भी नहीं रह सकता । सभी लोग अन्तष्टिके द्वारा इस बातका अनुभव करते रहते हैं । परन्तु इन्द्रियद्वारा प्राप्त देहादि बहिर्जगत् से सम्बन्ध रखनेवाले ज्ञानको ज्ञाता कुछ एक न्यायके अलंघनीय नियमोंके अधीन कर लेता है, और वे नियम देह या बहिर्जगत्से किसी तरह प्राप्त नहीं होते । जैसे—एक काल और एक स्थानमें किसी पदा
का भाव और अभाव दोनों बातें नहीं हो सकतीं; अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता कि कोई पदार्थ एक समय एक ही जगहमें रहे भी और नहीं भी रहे । यह नियम अलंघ्य है, इसका कुछ भी व्यक्तिक्रम नहीं हो सकता । -यह नियम बहिर्जगत्से नहीं पाया जाता । कोई कोई पाठक कह सकते हैं कि हम लोग बहिर्जगत् में एक समय में एक वस्तुका भाव और अभाव कभी नहीं देख पाते, और इसीसे इस नियमकी उत्पत्ति हुई है । किन्तु यह बात ठीक नहीं है । ऐसा नहीं कहा जा सकता कि छः पैरका घोड़ा या चार पैरकी चिड़िया हमने कभी कहीं देखी नहीं, इसीसे इस तरहके जीवके होनेका अनुमान हम नहीं कर सकते । किन्तु किसी पदार्थके एक समय भाव और अभावका अनुमान कभी नहीं किया जा सकता । यह नियम देहकी इन्द्रि योंके द्वारा पाया गया नहीं है । ज्ञाता आप ही इस ज्ञानकी धारणा करता है । इन्हीं सब कारणों से यह उपलब्धि होती है कि ज्ञाता या आत्मा सीमाबद्ध देहसे नहीं उत्पन्न हुआ है - वह अनन्त चैतन्यसे उत्पन्न हुआ है
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इसी लिए मैं अर्थात् आत्मा, देह नहीं, देहसे भिन्न पदार्थ है । यह बात 'कभी नहीं कही जा सकती कि यह उत्तर ठीक नहीं है, अथवा परीक्षाके द्वारा प्रमाणित नहीं हुआ । बल्कि युक्तिके द्वारा इसके विपरीत ही सिद्धान्त निश्चित होता है ।
आत्माका स्वरूप क्या है, आत्मा कहाँसे आया और कहाँ जायगा, अर्थात् देहका सङ्गठन होने के पहले आत्मा कहाँ था, और देहके विनाशके बाद कहाँ रहेगा, इन सब प्रश्नों का उत्तर, क्या भीतर और क्या बाहर, कहीं स्पष्ट रूपसे ज्ञानकी सीमा के भीतर नहीं पाया जाता। मगर तो भी इन सब प्रश्नोंका उत्तर प्राप्त करना ज्ञानचर्चाका एक चरम उद्देश्य है, और ज्ञाता भी