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ज्ञान और कर्म ।
[ प्रथम भाग
चेष्टा या कार्य कर्मविभागका विषय है 1 • कर्ताकी स्वतन्त्रता है या नहीं ? ' इस अध्यायमें इसकी आलोचना की जायगी। यह ज्ञाता या आत्मा त्रिविध क्रियाओंमेंसे एक है, इसी लिए इस जगह पर इसका उल्लेख किया गया । यहाँ पर यह कह देना कर्तव्य है कि आत्माके स्वरूपके साथ चेष्टा या करनेकी शक्तिका सम्बन्ध अत्यन्त विचित्र है । आत्माके ज्ञान या अनुभूतिका मुख्य कारण ज्ञात या अनुभूत विषय होता है, किन्तु आत्माकी चेष्टा या कार्यका मुख्य कारण आत्मा स्वयं ही है । कमसे कम पहले यही प्रतीत होता है
। मगर कुछ ध्यान देनेसे देख पड़ता है कि आत्माकी यह कर्तृत्वप्रतीति भ्रममूलक है । फलतः आत्माको किसी कार्यमें स्वतन्त्रता नहीं है । सभी कार्य तत्कालीन संनिहित बहिर्जगत्की अवस्था और उद्यत अंतःकरणकी प्रवृत्तिके द्वारा निरूपित होते हैं । वह बहिर्जगत्की अवस्था और अन्तःकरणकी प्रवृत्ति आत्माके अधीन नहीं है, कार्य कारणकी परंपराका क्रम उन्हें नियुक्त करता है । इस जगह पर गीताकी यह उक्ति याद आती है—
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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
[ गीता, अ० ३, श्लो०२७ ].
( अर्थात् - सब कर्म प्रकृतिके गुणों द्वारा किये जाते हैं । मगर अहंकार से - मूढ़ हो रहा आत्मा समझता है कि उनका कर्ता मैं हूँ ।
आत्मा कर्मक्षेत्रमें उदासीन है या कर्मोंमें लिप्त है, और अगर कर्मोंमें लिप्त है तो आत्माकी स्वतन्त्रता है या नहीं, इन सब बातोंके बारेमें बहुत मतभेद है । उसका उल्लेख बादको होगा। यहाँ पर इतना ही कहना यथेष्ट होगा कि देहयुक्त अपूर्ण अवस्था में आत्मा स्वतन्त्र नहीं, प्रकृति - परतन्त्र है । किन्तु आत्मा जगत्के आदि कारण उसी ब्रह्मके चैतन्य स्वरूपका अंश है, इसी लिए अपूर्ण अवस्थामें भी अपनेमें अस्फुट रूपसे उस आदि कारणकी स्वतन्त्रताका अनुभव करता है । जान पड़ता है, यही आत्माके स्वतन्त्रतावाद और परतन्यतावादी स्थूल मीमांसा है । आत्माका स्वतन्त्रताविषयक अस्फुट ज्ञान और कार्यकारणविषयक अलंघ्य नियमके साथ उस ज्ञानका विरोध देख पड़ता है । इस विचित्र रहस्यका मर्म समझनेके लिए ऊपर जो कहा गया है, उसके सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता ।