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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
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__ यहाँपर केवल एक बात कही जायगी। इस दूसरे कर्तव्यका पालन करनेके लिए राजा सर्व साधारणके मंगलके वास्ते व्यक्तिविशेषका अमंगल करनेको या उसे दण्ड देनेको बाध्य होता है। वह आंशिक अमंगल एक प्रकारसे अनिवार्य है। किन्तु उस अमंगल या दण्डका परिमाण घटानेके लिए यथासाध्य चेष्टा करना राजाका कर्तव्य है। दण्डित या दण्डनीयको दण्ड इस तरह देना चाहिए कि उसके द्वारा उसका शासन भी हो और साथही संशोधन भी हो।
प्रजाकी प्रकृति जानना और
उसके अभावोंका निरूपण । राजाका तीसरा कर्तव्य है, प्रजाके अभावोंका निरूपण करना, और उसके लिए प्रजावर्गकी रीति-नीति और प्रकृतिको विशेष रूपसे मालूम करना। प्रजाका यथार्य अभाव क्या है, वे क्या चाहते हैं, और वे जो कुछ चाहते हैं वह देना राजाके लिए कहाँ तक साध्य और संगत है, इन सब विषयोंको जाने बिना राजा अपनी शासन प्रणालीको प्रजाके लिए सुखकर नहीं बना सकता। और, उक्त बातोंके जाननेके लिए, जिन्हें प्रजा चाहती है, यह आवश्यक है कि राजा अपनी प्रजाकी रीति-नीति और प्रकृतिको अच्छी तरह जान ले । जहाँ राजा और प्रजा दोनों भिन्न भिन्न जातिके हैं, वहाँ इन सब विषयोंको विशेष रूपसे जाननेका अधिक प्रयोजन है। क्योंकि अनेक समय ऐसा होता है कि प्रजाकी प्रकृतिके सम्बन्धमें अनभिज्ञ होनेके कारण राजा अपने साधु उद्देश्यको सिद्ध नहीं कर सकता, या यों कहो कि उसका साधु उद्देश्य सिद्ध नहीं होता । जैसे रोगीकी प्रवृत्तियोंके जाने बिना दवा देनेसे पूर्ण रूपसे रोगीका उपकार नहीं होता, वैसे ही प्रजाकी प्रकृतिको जाने बिना उसके हितके लिए कोई काम करनेसे भी वह कार्य सफल नहीं होता। प्रजाकी प्रकृतिको विषेश रूपसे जाननेके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि विजातीय राजा या राजपुरुष लोग प्रजाकी भाषा, साहित्य और धर्मके स्थूल तत्त्वको अच्छी तरह समझ लें।
प्रजाकी स्वास्थ्यरक्षाका प्रबन्ध । राजाका चौथा कर्तव्य है, प्रजावर्गके सुख और स्वच्छन्दताकी वृद्धिके लिए समुचित विधानकी स्थापना करना । सब सुखोंका मूल स्वास्थ्य है।