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पाँचवाँ अध्याय ]
राजनीतिसिद्ध कर्म ।
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राजाका पहला कर्तव्य है, बाहरी शत्रुओंके आक्रमणसे प्रजाकी रक्षा करना । इस कर्तव्यता पालन करने के लिए सेना रखनेकी आवश्यकता होती है। यद्यपि इस समय पृथ्वीपर असभ्य जातियोंकी संख्या और बल अधिक नहीं है, और सभ्य जातियोंमें भी यह आशंका बहुत कम है कि कोई अकारण दूसरे पर आक्रमण कर बैठेगा, तो भी सभी सभ्य जातियाँ यथेष्ट सेना रखनेके लिए व्यस्त हैं, और यद्यपि उसमें बहुतसा धन खर्च करनेका प्रयोजन होता है, किन्तु सभी उस खर्चका बोझ खुशीसे उठाये हुए हैं। अगर पृथ्वीकी सब सभ्य जातियाँ मिलकर, परस्पर एक दूसरे पर विश्वास स्थापित करके, ठीक करलें कि उनमेंसे सब जातियाँ असभ्य जातियोंके अन्याय आक्रमणकी आशंका दूर करने और अन्य प्रयोजनीन कार्य साधने भरके लिए यथासंभव सेना रखकर बाकी सेना निकाल डालेंगे, तो बहुत मा धन और वहुतमे आदमी, जो इस समय भावी अशुभको रोकने के उद्देश्यसे सेनामें फंसे हुए हैं, अनेक प्रकारके वर्तमान शुभ कार्यों में लगाये जा सकते हैं। क्या ऐसा हो नहीं सकता।
राज्यकी शान्तिरक्षा। राजाका दूसरा कर्तव्य है, राज्यके भीतरी शत्रुओंके अत्याचारसे ( अर्थात् ठग चोर डाकू और अन्यान्य प्रकारके दुष्ट लोगोंके अन्याय आचरणसे ) प्रजाकी रक्षा करना । इस उद्देश्यसे, देशके शासनके लिए सुनियमोंकी व्यवस्था, उन नियमोंका उल्लंघन करनेवालोंके दोष-निर्णय और दण्डविधानके लिए उपयुक्त विचारालयोंकी स्थापना, और उन विचारालयोंकी
आज्ञाके पालन और साधारणतः शान्तिरक्षाके लिए उपयुक्त कर्मचारियोंको रखना, आवश्यक होता है । कानून बनाने और पास करने के लिए व्यवस्थापक सभा (लेजिस्लेटिव कौंसिल) स्थापित करनेका, और उस सभामें यथासंभव साधारण प्रजावर्गके प्रतिनिधियोंको सभ्य ( मेंबर ) रूपसे नियुक्त करनेका प्रयोजन होता है । कारण, ऐसा होनेसे ही प्रजावर्गके प्रकृत अभावको पूर्ण करनेकी व्यवस्था ( कानून ) विधिबद्ध हो सकती है।
राजाके इस दूसरे कर्तव्यके बारेमें बहुतसी बातें कहनको है, किन्तु उन सब बातोंका इस क्षुद्र ग्रन्थमें सन्निवेश हो नहीं सकता।