________________
३३२
शान और कर्म।
[द्वितीय भाग
स्वाभाविक ही है। विजित जाति भी फिर अपनी खोई हुई स्वाधीनताको पानेके लिए व्यग्र रहती है. और उसका सुयोग खोजती है। यही कारण है कि विजयी जाति विजित जातिको राजतन्त्रमें शामिल करनेका साहस नहीं करती। कभी कभी ऐसा भी होता है कि विजेताकी उदारता और विजितकी शिष्टताके कारण परस्पर पर होनेवाला सन्देह और असद्भाव क्रमशः कम हो जाता है, और उनके बीच सद्भाव उत्पन्न होता है। किन्तु दुःखका विषय यह है कि अनेक स्थलोंमें वह सद्भाव स्थायी नहीं होता । विजयी जातिके निकट शिक्षा प्राप्त करके, और उनकी स्वाधीनताका आदर्श देखकर, अगर विजित जाति क्रमशः विजेताके समकक्ष होनेकी चेष्टा करती है, तो फिर वही असद्भाव आपसमें उठ खड़ा होता है। ऐसे स्थलमें दोनों पक्षोंका थोड़ा बहुत दोष रहता है । विजित जाति जब विजयी जातिके निकट शिक्षा-लाभ करके और उनके आदर्शको देखकर राजनीतिकक्षेत्रमें उन्नति प्राप्त करती है, तब उन दोनोंमें एकप्रकारसे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध उत्पन्न होजाता है । ऐसी अवस्थामें विजेताके प्रति योग्य सम्मान और कृतज्ञता नहीं दिखाना विजितके लिए अकतव्य है। उधर विजितकी उन्नति देखकर गुरुको शिष्यकी उन्नतिमें जैसा आनन्द होता है, वैसे आनन्दका अनुभव न करके विरुद्धभावको अपने मनमें स्थान देना विजेताके लिए भी अकर्तव्य है। इन सब स्थलों में परस्पर सद्भाव बढ़नेमें और एक विघ्न कभी कभी देखा जाता है । विजेता राजा (या राजशक्ति) विजितके साथ राजा-प्रजाके सम्बन्धको चिरस्थायी बनानेकी और विजितके निकट राजभक्ति पानेकी इच्छा करता है। किन्तु विजयी जातिके अनेक लोग अपनी जातिके अभिमानसे गर्वित होकर विजित जातिको पराधीन समझते और उससे घृणा करते हैं। इसका फल यह होता है कि विजित जातिके अनेक लोगोंके मनमें राजभक्तिकी जगह विद्वेषका भाव और फिर स्वाधीनता पानेकी दुराकांक्षा उद्दीपित होती है। और, वे वह विद्वेषभाव दिखाने के लिए, उससे स्वजातीय लोगोंकी भलाई या लाभ हो अथवा न हो, विजयी जातिके व्यापारियोंके लाभको हानि पहुँचानेके लिए विपुल घोषणा करते हैं । इस प्रकार परस्परका असद्भाव बढ़ता ही रहता है। कोई कोई कहते हैं, ऐसे स्थलों परस्परका असद्भाव अनिवार्य है।
ऐसे असद्भावकी जड़में दोनों ही पक्षोंकी न्यायपरता और सत् विवेचनाका कुछ अभाव है। सुतरां जहाँ दोनों ही पक्ष सभ्यू जाति होनेका अभिमान