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पाँचवाँ अध्याय]
राजनीतिसिद्ध कर्म ।
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करती हैं, वहाँ उस असद्भावको अनिवार्य कहनेकी इच्छा नहीं होती! और,. अनिवार्य कहनेसे सभ्यता और मानवचरित्रपर कलङ्क आरोपित होता है। इस बातको कुछ विवेचना करके देखना चाहिए।
एक जातिको दूसरी जाति जब जीतती है, तब दोनों अगर सभ्यतामें समान न हुए, तो अपेक्षाकृत असभ्यजाति अधिक सभ्यजातिके निकट शिक्षा प्राप्त करती है। रोमकी उन्नत अवस्थामें विजित असभ्यजातियोंने रोमके निकट शिक्षा प्राप्त की थी। उधर रोमकी अवनत अवस्थामें विजयी जर्मनीके अरण्यवासियोंने भी उसी रोमहीके निकट शिक्षा पाई थी। इस तरहके स्थलमें शिक्षा और श्रद्धाके लेन-देनेसे, और सामाजिक तथा पारिवारिक बन्धनसे, विजित और विजेताके बीच क्रमशः सद्भाव बढ़ते बढ़ते अन्तको दोनों एक जाति हो जाते हैं। किन्तु जहाँ जित और जेताकी सभ्यता तुल्य या तुल्यके लगभग है, और उनकी समाजनीति और धर्म इतना जुदा है कि उनका परस्पर सामाजिक या पारिवारिक बन्धनमें बँधना असंभव है, वहाँ उनका परस्पर मिलकर एक जाति होना असंभव है-वैसी आशा नहीं की जासकती। अतएव उस जगह उनमें सद्भावके स्थापनका एकमात्र उपाय उनकी परस्पर न्यायपरता और सद्विवेचनाके साथ व्यवहार ही है। और, उस सद्भावका परिणाम है, विजयीजातिके निकट प्राप्त उपकारके परिमाणके अनुसार उस जातिके साम्राज्यकी अधीनतामें विजितजातिका थोड़ी बहुत बाध्यबाधकताके साथ मिलकर रहना।
एक जातिने अगर अन्य जातिको, जो सभ्यतामें उसके बराबर या बराबरके लगभग है, बलसे, कौशलसे या घटनाचक्रके फेरसे हरा दिया तो उसका यह समझना अन्याय है कि वह हारी हुई जाति केवल हार जानेके कारणः घृणाके योग्य है। कारण, रणनिपुणता प्राप्त करनेके लिए युद्धके विषयमें जैसा अनुराग रहनेकी आवश्यकता है, वह युद्धका अनुराग मनुष्यकी आध्यात्मिक उन्नतिमें कुछ बाधा डालनेवाला है, और यह नहीं कहा जा सकता कि जिस जातिमें वह युद्धकौशल और वह युद्धानुराग थोड़ा है वह जाति इसी कारणसे हीन जाति है । हमारी अपूर्ण अवस्थामें जब शिष्ट मनुष्योंके साथ साथ दुष्ट मनुष्य भी रहेंगे, तब दुष्टोंका दमन करनेके लिए हरएक जातिको शारीरिक बलकी आवश्यकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु उसकी न्यूनाधिक