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पाँचवाँ अध्याय ]
राजनीतिसिद्ध कर्म |
कभी संभव नहीं है । क्योंकि दस आदमियोंके, परस्परके मतका सामञ्जस्य करके काम करनेमें अवश्य ही कुछ समय लगता है, और हर एककी इच्छा और उद्यमको दूसरेकी इच्छा और उद्यमके साथ मेल खानेके लिए अवश्य ही कुछ घटना पड़ेगा । एकेश्वर राजतन्त्रका दोष यह है कि जिसका एकाधिपत्य है वह अगर असाधारण ज्ञानी नहीं हुआ, तो उसकी शासनप्रणाली में विचक्षणताका अभाव रहेगा, और वह अगर असामान्य साधुस्वभावका पुरुष नहीं हुआ, तो क्षमता अपव्यवहारसे रुकना उसके लिए कठिन है ।
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विशिष्ट प्रजातन्त्रका गुण यह है कि उसमें देशके श्रेष्ठ लोगोंकी समष्टिके हाथमें राजशक्ति रहनेके कारण राष्ट्र-शासनमें विचक्षणताका अभाव नहीं होता । किन्तु उसका दोष यह है कि उसकी शक्ति एक राजाके हाथमें अर्पित शक्तिकी तरह प्रबल और सहज में चलानेके योग्य नहीं होती । और, विशिष्टप्रजात
में साधारण प्रजावर्गके हित पर भी उतनी दृष्टि रहना संभवपर नहीं है । साधारण प्रजातन्त्र में गुण यह है कि उसमें साधारण प्रजावर्गके हितके ऊपर विशेष दृष्टि रहती है । साधारण प्रजातन्त्र में दोष यह है कि उसमें राजशक्तिकी प्रबलता और सहज परिचालन- योग्यताका -हास होता है ।
भिन्न भिन्न प्रकारके राजतन्त्रों में राजाप्रजाका सम्बन्ध भिन्न भिन्न भाव धारण करता है । एकेश्वर राजतन्त्र में राजा और प्रजाका पार्थक्य तथा राजाके निकट प्रजाकी अधीनता अत्यन्त अधिक होती है । विशिष्टप्रजातन्त्र में संभ्रान्त (धनी) प्रजा जो है हह समष्टिरूपसे राजा है और व्यष्टिरूपसे साधारण प्रजावर्गकी तरह प्रजा है। और, साधारण प्रजातन्त्र में प्रजावर्ग समष्टिरूपसे राजा और व्यष्टिरूपसे प्रजा होते हैं । इन दोनों तरहके प्रजातन्त्रों में राजा और प्रजाका पार्थक्य उतना अधिक नहीं है, और प्रजापुंजकी स्वाधीनता भी उतनी थोड़ी नहीं है ।
इनके सिवा और एक प्रकारकी राजा प्रजा के सम्बन्धकी विचित्रता है, वह भी इस जगह पर उल्लेखयोग्य है । किसी जातिको कोई दूसरी जाति जीत ले, तो वह हारी हुई जाति विजेताकी अधीनता स्वीकार करनेके लिए और उसकी प्रजा होनेके लिए वाध्य होती है । लेकिन उसके साथ ही विजयी राजतन्त्र में अगर प्रजाका कुछ कर्तृत्व रहता है ( जैसे वह राजतन्त्र अगर प्रजातन्त्र हो ), तो वह विजित जाति उस कर्तृत्वका कोई अंश नहीं पाती । न पानेका कारण भी है। विजयी जातिका विजित जातिको सन्देहकी दृष्टिसे देखना