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पाँचवाँ अध्याय ]
राजनातिसिद्ध कर्म ।
भाव धारण करती है तो राजा उसके शासनके लिए दृढ़ नियम स्थापित करनेकी प्रवृत्ति और भी उत्तेजित होती है और क्रमशः राजा और प्रजाका विरोध बढ़ता ही जाता है । अतएव राजा और प्रजाके बीचमें किसी एक पक्षका व्यवहार अनुचित होनेसे वह दोनों पक्षोंके लिए अनिष्टकर हो उठता है। इस लिए राज्यकी शान्तिरक्षा और अपनी अपनी भलाईके वास्ते राजा
और प्रजा दोनों पक्षोंको परस्पर न्यायका व्यवहार करना चाहिए। यही दोनोंका कर्तव्य है। २ राजतन्त्रके और राजा-प्रजा-सम्बन्धके भिन्न भिन्न प्रकार ।
राजतन्त्रके भिन्न भिन्न प्रकारोंकी आलोचनाके पहले, पूर्ण या स्वाधीन राजतन्त्रका लक्षण क्या है, यह निश्चित करनेकी आवश्यकता है। पूर्ण राजतन्त्र वही कहा जाता है जिसके निकट उसके अन्तर्गत सभी व्यक्ति अधीनता स्वीकार करें, और जो खुद अन्य किसीके निकट अधीनता न स्वीकार करे। अर्थात् जिस राजतन्त्रकी प्रजा उसके निकट संपूर्ण रूपसे अधीन है, और जिसकी राजशक्ति खुद किसीके अधीन नहीं है, उसीको पूर्ण-राजतन्त्र कहते हैं। और, उसी तरहके राजतन्त्रकी शक्तिको पूर्ण-राजशक्ति कहते हैं।
एकेश्वरतन्त्र। जिस शासनप्रणालीमें, एक व्यक्तिके हाथमें पूर्ण-राजशक्ति है, अर्थात् जहाँ एक आदमीकी इच्छाके अनुसार सब काम चलता है, और उसके निकट देशके सभी लोग अधीनता स्वीकार करते हैं, किन्तु वह व्यक्ति खुद किसीके भी अधीन नहीं है, उसको एकेश्वरतन्त्र (Jionarchy) कहते हैं, और वह एकेश्वर राजा कहलाता है। वह राजा पहलेके राजाके उत्तराधिकार-सूत्रसे राज्य पा सकता है, अथवा प्रजावर्गके द्वारा निर्वाचित हो सकता है। यह सबकी अपेक्षा सबल राजतन्त्र है।
विशिष्ट प्रजातन्त्र । जिस शासनप्रणालीमें देशके खास आदमियों के समूहके या उनके किसी खास विभागके, हाथमें राजशक्ति होती है, वह विशिष्ट प्रजातन्त्र (Aristocracy ) कहलाती है। कार्यानबीह की सुविधाके लिए इस तरहके विशिष्ट प्रजातन्त्रमें एक निर्दिष्ट समयके लिए निर्दिष्ट नियमके अनुसार एक आदमी सभापति निर्वाचित हुआ करता है।