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ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग
..mumniwwwmummmmmmmmmmmmmmmmmmm श्यक है, वह इतने अधिक आयास और व्ययसे साध्य है, और उसका प्रतिरोध करनेकी प्रवृत्ति क्रमशः इतनी प्रबल हो उठती है कि अन्तको राजाको, इच्छा या अनिच्छाके साथ, उस बलका प्रयोग रोकना ही पड़ता है। यह सच है कि देशके भीतरी और बाहरी शत्रुओंके कायिक बलके अत्याचारसे प्रजाकी रक्षा करना ही राजाका प्रधान कार्य है, और उसके लिए राजाको शारीरिक बलका प्रयोजन होता है। किन्तु प्रजाका शासन करनेके लिए-उसे काबूमें रखने या दबानेके लिए-कायिक बल प्रयोजनीय होनेपर भी वह यथेष्ट नहीं है। उसके लिए प्रजावर्गकी, कमसे कम उनमेंसे अधिकांशकी, प्रकाश्यरूपसे या अन्य प्रकारसे दी हुई संमति आवश्यक है। वह संमति भयसे उत्पन्न या भक्तिसे उत्पन्न हो सकती है, किन्तु वह भय या भक्ति राजाके कायिक बल अर्थात् सैनिक बलके द्वारा नहीं उत्पन्न होती, वह राजाके नैतिक बल अर्थात् उसकी न्यायपरता और शासनकी उपकारितासे उत्पन्न हुआ करती है (.)। कायिक बलकी बाधिका (रोकनेवाली)शक्ति बहुत समय तक टिकनेवाली नहीं होती, नैतिक बलहीका कार्य स्थायी होता :. है। क्या राजा और क्या प्रजा, सभीको नैतिक बलका प्रभाव स्वीकार करना पड़ता है। राज्य और राजा-प्रजा-सम्बन्ध दोनोंकी स्थितिकी नींव राजाका नैतिक बल है। एक तरफ जैसे प्रजाको राजद्रोहसे निवृत्त रखनेके लिए राजाके नैतिक बलकी आवश्यकता है, दूसरी तरफ वैसे राजाको प्रजा पीड़नसे निवृत्त रखनेके लिए प्रजाको नैतिक बलका प्रयोजन है । राजाके न्यायपरायण और सुनीतिसम्पन्न होनेसे जैसे प्रजा उसके विरुद्ध आचरण करनेकी इच्छा नहीं करती, वैसे ही प्रजावर्गके न्यायपरायण और सुनीतिसंपन्न होनेसे राजा भी उनके सुख और स्वच्छन्दताके प्रति उदासीन नहीं हो सकता। राजाके न्यायपरायण न होनेसे उसके प्रति प्रजाके हृदयमें यथार्थ भक्तिका होना संभव नहीं है, और अशिष्ट प्रजागणका उसके विरुद्ध आचरणमें प्रवृत्त होना असंभव नहीं है। इसका फल यह होता है कि राजा प्रजाके प्रति और भी अप्रसन्न होता जाता है, और क्रमशः राजा और प्रजामें परस्पर असद्भाव बढ़ता रहता है। उधर प्रजा अगर न्यायपरायण न होकर उदण्ड
( 9 ) Maine's Early History of Institutions, P. 359, site Bluntschli's Theory of the State, P. 265 देखो।