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पाँचवाँ अध्याय ]
राजनीतिसिद्ध कर्म:
सद कम।
मानमें अवनतिकी ओर होती हुईसी जान पड़ती है : किन्तु कुछ मन लगःकर देखनेसे अधिकांश स्थलोंमें समझा जा सकता है कि वह वक्रगति कुछ ही समय तक रहनेवाली है, और परिणाममें सनी परिवर्तनोंकी गति उन्नतिकी ओर होगी। इस प्रश्नका उत्तर अपूर्ण मानवबुद्धि नहीं दे सकती कि पूर्ण उन्नति पानेके बाद सृष्टिका कौन भाग अलग रहेगा, या अनन्त ब्रह्ममें लीन
होगा।
पृथ्वीके राजतन्त्रके परिवर्तनकी परिणति क्या होगी, यह कहा नहीं जा सकता। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि ग्रीस और रोमके प्राचीन साम्राज्यके ध्वंस होनेके जो सब कारण उपस्थित हुए थे, उन कारणोंके उपस्थित होनेकी फिर संभावना नहीं है। एक तो बाहरके वैसे अविवेचक अन्य बलाली ओर किसी वर्तमान राज्यके विरुद्ध खड़े होना संभवपर नहीं है। कारण, इस समय जो सब जातियाँ क्षमतासंपन्न हैं, वे रोम-साम्राज्यकेशव गथ् और वैण्डल जातियोंकी तरह अविवेचक और अन्ध नहीं हैं, वे बहुत सोच विचार कर काम करती हैं। और, जो सब असभ्य जातियाँ इस समय पृथ्वीपर हैं, उनके द्वारा किसी सभ्यजातिकी हार होना संभवपर नहीं है, बल्कि खुद उन्हींके पराजित होनेकी संभावना है। मतलब यह कि इस समय जय-पराजय जो है वह बहु बलके उत्कर्ष-अपकर्षपर निर्भर नहीं है । दूसरे, भीतरके शत्रु, अर्थात आलस्य विलासिता, अविवेचना, अविचार आदि, जिन्होंने पतनके पहले रोमपर आक्रमण किया या, उन्होंने भी इस समयकी किसी बड़ी जातिपर आक्रमण नहीं किया है, किन्तु तो भी यह बात नहीं कही जा सकती कि युद्धविग्रहकी कोई संभावना नहीं है। एक समय जनसाधारणकी और पण्डितों (विद्वानों या समझदारों) की धारणा थी कि मनुष्य असभ्य या अर्ध-सभ्य अवस्थामें ही युद्धप्रिय होता है, और राज्य बढ़ाने में लगा रहता है, क्रमशः सभ्यताकी वृद्धि और शिल्प-वाणिज्यका विस्तार होनेपर शान्तिप्रिय हो जाता है। किन्तु इस समय देखा जाता है कि शिल्पकी वृद्धि और वाणिज्यके विस्तारके साथ साथ युद्धकी चाट भी बढ़ती है, और शिल्प या वाणिज्यके बाजार बनाये रखनकी चेष्टा अनेक जगह युद्धका कारण हो उठती है।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि राष्ट्रविप्लवके द्वारा राजतन्त्रके परिवर्तन भौर नवीन राजा-प्रजाके सम्बन्ध (शासन प्रणाली) की सृष्टिका जमाना चला