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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
गया । यद्यपि फ्रांसके विप्लवकी भयानक घटना और उसका अशुभ फल स्मरण रखकर कोई भी जाति अब फिर वैसे राष्ट्रविप्लवमें लिप्त होना नहीं चाहगी, तथापि इस समय भी अनेक देशोंमें राजतन्त्रके परिवर्तन के लिए साधारण विप्लव चल रहे हैं।
देशकी और समाजकी अवस्था बदलनेके साथ साथ राजतन्त्रके परिवर्तनका प्रयोजन होता है। वह परिवर्तन विना विप्लवके शान्त भावसे होना चाहिए, और ऐसा होनेहीमें भलाई है । यह बड़े सुखकी बात है कि अनेक जगह ऐसा ही हो रहा है।
राजा-प्रजासम्बन्धकी उत्पत्तिके कारणोंके साथ साथ जो निवृत्तिके कारगोंका उल्लेख किया गया है. वह निवृत्ति पहलेके राजतन्त्रके परिवर्तनका फल है। जहाँ पहलेका राजतन्त्र राजा और प्रजा दोनों पक्षोंकी इच्छासे परिवर्तित होता है (जैसे शान्त भावसे संशोधनके द्वारा), अथवा एक पक्ष या राजाकी अनिच्छासे किन्तु अन्य पक्ष या प्रजाकी इच्छासे परिवर्तित होता है (जैसे राष्टविप्लवके द्वारा), या दोनों पक्षोंकी अनिच्छासे परिवर्तित होता है (जैसे अन्य राजाके निकट पराजयके द्वारा), वहाँ पहलेके राजा या राजशक्तिके परिवर्तनके साथ साथ अवश्य ही पहलेके राजा-प्रजा-सम्बन्धकी भी निवृत्ति (समाप्ति ) हो जायगी। किन्तु इसके सिवा इस सम्बन्धकी और एक प्रकारसे निवृत्ति भी संभव है। किसी देश में राजतन्त्रका तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ, परन्तु प्रजाओंमेंसे कोई कोई उस देशके राजाकी प्रजा न रहकर देशान्तरमें उठ जाकर वहाँके राजाकी प्रजा होनेकी इच्छा कर सकते हैं । इसमें यह प्रश्न उठता है कि ऐसा कार्य न्याय-संगत है कि नहीं, अर्थात् कोई प्रजा अपनी इच्छासे उस सम्बन्धको, जो उसका राजाके साथ है, न्यायके अनुसार तोड़ सकता है कि नहीं। अगर वह उस राजाके राज्यमें रहनेके सब सुभीते भोग करेगा, लेकिन उसकी अधीनता नहीं स्वीकार करेगा, तो यह न्याय-संगत नहीं हो सकता। दूसरे, अगर इस सम्बन्धको तोड़नेका अधिकार एक प्रजाको रहे, तो वह और दस आदमियोंको भी है; सौ आदमियोंको भी है, हजार आदमियोंको भी है। ऐसा होनेपर धीरे धीरे राज्यकी बहुतसी प्रजा केवल अपनी इच्छासे स्वाधीन हो सकती है। उससे राज्यके सुख और शान्तिमें भनेक विघ्न होनेकी संभावना है। जो प्रजा राजाके साथ सम्बन्ध तोड़ना